Saturday 30 September 2017

सिन्हा ने पानी में कंकड़ फेंक विपक्ष के सुर में मिलाया सुर

भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने अर्थव्यवस्था पर आलेख बम फेंककर अपनी ही पार्टी और सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया है। यही नहीं उन्होंने विपक्ष को भी मोदी सरकार पर हमला तीखा करने का मौका दे दिया है। उनकी कठोर टिप्पणी को विपक्षी दलों और प्रधानमंत्री विरोधियों ने हाथों-हाथ लिया है। उसे सोशल मीडिया पर भी खूब भुनाया जा रहा है। सिन्हा का लेख ऐसे वक्त पर प्रकाशित हुआ है जब देश की अर्थव्यवस्था ढलान पर है और विपक्ष खासकर कांग्रेस केंद्र सरकार की जमकर आलोचना कर रही है। सिन्हा का मानना है कि वित्तीय कुप्रबंधन, नोटबंदी और जीएसटी के लचर क्रियान्वयन ने भारतीय अर्थव्यवस्था का बेड़ागर्क कर दिया है और वास्तविक आर्थिक वृद्धि दर 3.7 प्रतिशत पहुंच गई है। उन्होंने वित्तमंत्री को उदारीकरण के बाद से अब तक का सबसे भाग्यशाली वित्तमंत्री बताते हुए कहा है कि उनके समय में कच्चे तेल के दाम गिरे। इसका लाभ उठाकर गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) पर नियंत्रण किया जा सकता था और रुकी हुई परियोजनाओं को पूरा किया जा सकता था। सरकार के आंकड़ों में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की मौजूदा दर 5.7 प्रतिशत है लेकिन वास्तव में यह 3.7 प्रतिशत है। मोदी सरकार ने वर्ष 2015 में जीडीपी की वृद्धि दर मापने के तरीकों में बदलाव किया है जिससे आंकड़ा 5.7 प्रतिशत दिख रहा है। यशवंत सिन्हा की टिप्पणी को बेशक सरकार के मंत्री और संगठन उनकी कुंठा और खीझ बताकर  टाल दें पर आज जो माहौल है उसको कैसे रद्द कर सकते हैं। अगर यशवंत सिन्हा निजी कारणों से सरकार पर हमला बोल रहे हैं तो भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी संगठन भारतीय मजदूर संघ क्या कह रहा है उस पर तो ध्यान दें। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने अर्थव्यवस्था में मंदी के लिए सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हुए दो दिन पहले कहा कि मौजूदा आर्थिक हालात पर विचार करने के लिए सभी सामाजिक-आर्थिक पक्षों का गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना चाहिए। संघ का मजदूर संगठन बीएमएस और स्वदेशी जागरण मंच सरकार की आर्थिक नीतियों का खुलकर विरोध कर रहे हैं। हाल में मथुरा में हुई संघ की कार्यकारिणी की बैठक में दोनों संगठनों ने सरकार की आलोचना की। आज ही मजदूर संघ ने यशवंत सिन्हा का समर्थन करते हुए कहा कि सरकार के सलाहकारों और गलत नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था सुस्त हुई है। संघ के महामंत्री ब्रजेश उपाध्याय ने कहा सरकार के सुधार मिसगाइडेड हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बुधवार को गुजरात के सुंदर नगर जिले में चोटिला के निकट एक जनसभा को संबोधित करते हुए मोदी सरकार पर आम लोगों की दुर्दशा को नजरअंदाज करने और कुछ लोगों के हित का ख्याल रखने का आरोप लगाते हुए कहा कि यशवंत सिन्हा के अब मुझे बोलने की जरूरत है शीर्षक लेख पर लेख का समर्थन किया। राहुल ने कहा कि मैंने भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा का एक आलेख पढ़ा। उन्होंने लिखा है कि मोदी जी और जेटली जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था का विनाश कर दिया है। यह मेरे विचार नहीं हैं बल्कि यह भाजपा नेता की राय है। मोदी के गृह राज्य में इस साल चुनाव होना है। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा ः भाजपा नेता जानते हैं कि देश गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है, फिर भी कोई बोलने को तैयार नहीं है क्योंकि वे मोदी से डरे हुए हैं। गांधी ने दावा किया कि देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल में है क्योंकि भाजपा सरकार आम लोगों की बात नहीं सुनती। प्रधानमंत्री के मन की बात कार्यक्रम पर चुटकी लेते हुए गांधी ने कहा ः यह इसलिए हुआ है कि भाजपा सरकार ने किसानों, युवाओं, श्रमिकों, कारोबारियों और महिलाओं की कभी सुनी ही नहीं, जो इस देश को चलाते हैं। भाजपा के लोग केवल कारोबारियों (बड़े) की सुनते हैं और इसके बाद लोगों से अपने मन की बात करते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने भी हुकूमत पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि सरकार आर्थिक गिरावट की स्थिति से बेखबर है। सांसद से लेकर उद्योगपति तक अर्थव्यवस्था की खराब सेहत से चिंतित हैं। लेकिन इस सरकार के डर से कोई खुलकर बोल नहीं रहा। उन्होंने ऐसे तमाम लोगों से अपील की कि उन्हें डर छोड़कर, इस हालत को लेकर अपनी मन की बात रखनी चाहिए। यशवंत सिन्हा ने तो पानी में कंकड़ फेंका है। पानी में कितनी हलचल मचती है, देखते हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इस बात की आशंका है कि यदि सरकार अपनी पूरी ताकत भी लगा दे तो भी 2019 के लोकसभा चुनावों तक अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सकता। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के फौरन बाद 2 दिन में पार्टी के भीतर ही मोदी सरकार पर हुए हमले के बाद भले ही पार्टी आलाकमान उसे तरजीह न दे रहा हो। लेकिन पार्टी में बेचैनी जरूर महसूस की जा रही होगी। पार्टी में आशंका जरूर जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में कुछ और नाराज नेता अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो जनता में इसका गलत संदेश जा सकता है। हालांकि पार्टी नेतृत्व की ओर से यही संकेत दिए जा रहे हैं कि फिलहाल जो लोग भी सरकार के कामकाज पर उंगली उठा रहे हैं, वे इसलिए निराश हैं क्योंकि उन्हें कोई ओहदा नहीं मिला। भाजपा सूत्रों के मुताबिक पार्टी में इस मसले पर कोई  भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। लेकिन पार्टी में नेताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसका मानना है कि पहले वरुण गांधी का रोहिंग्या के मामले में पार्टी से अलग लाइन लेना और फिर यशवंत सिन्हा का खुलकर मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर हमला करने से पार्टी में नाराज नेताओं को ताकत मिलेगी। यही वजह है कि अब यह माना जाने लगा है कि आने वाले दिनों में एक बार फिर सरकार की वित्तीय नीतियों के आलोचक और मुखर हो जाएंगे। पार्टी सूत्रों के मुताबिक हालांकि यशवंत सिन्हा के लेख से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन इससे एक तो जनता में गलत संदेश जाएगा और दूसरे विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस यह मौका नहीं छोड़ेगी। उस पर तुर्रा यह है कि गुजरात विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। पार्टी की चिंता यही है कि यशवंत सिन्हा के इस बागी रुख के देखा-देखी दूसरे नेता भी अपना रंग न दिखाने लगें। अगर ऐसा हुआ तो यह सिलसिला लंबा हो सकता है। इसकी वजह यह है कि अब तक मोदी सरकार के कामकाज और उनकी बेरुखी से नाराज रहने वाले नेता  मौका देखकर अपनी चुप्पी तोड़ सकते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Friday 29 September 2017

आतंकियों को जमीन के ढाई फुट नीचे गाड़ देंगे

जम्मू-कश्मीर में जम्मू संभाग के चिनाब वैली क्षेत्र में आतंकवादियों के कदम एक बार फिर तेजी से बढ़ने लगे हैं। बनिहाल के एसएसबी कैंप पर आतंकी हमला इस कड़ी का पहला हमला बताया जा रहा है। उधर सेना ने जम्मू-कश्मीर के बारामूला जिले के उरी में पिछले साल हुए हमले को दोहराने की साजिश को नाकाम करते हुए रविवार को तीन आतंकियों को मार गिराया। मुठभेड़ के दौरान एक सैनिक और तीन नागरिक घायल हो गए। उधर बारामूला के सोपोर में हुए ग्रेनेड हमले में तीन सुरक्षाकर्मी घायल हो गए। आतंकियों ने पिछले वर्ष की तरह उरी में एक सैन्य शिविर पर हमले को अंजाम देने की साजिश रची थी। एक बड़े षड्यंत्र को विफल कर दिया गया। पिछले वर्ष एक सैन्य अड्डे पर आत्मघाती हमले की तरह आतंकियों ने इस बार भी साजिश रची थी, लेकिन पुलिस और सेना के हाथ यह सूचना पहले ही लग गई। सेना ने आतंकवादियों के खिलाफ आक्रामक रुख अपना रखा है। इस सख्ती से ही आतंकी गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल अब तक जम्मू-कश्मीर में 144 आतंकी मारे जा चुके हैं। यह संख्या इस दशक में सबसे ज्यादा है। इससे पहले 2016 में 150 आतंकी मारे गए थे, लेकिन वो आंकड़ा पूरे साल का था। इसके अलावा सुरक्षाबलों ने कई नामी आतंकियों को गिरफ्तार करने में भी सफलता पाई। सेनाध्यक्ष मेजर जनरल विपिन रावत ने कहा है कि सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद पाकिस्तान को संदेश भेजना था। उन्होंने कहा कि अगर फिर भी वे नहीं समझते तो हम फिर से नियंत्रण रेखा के पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक करने के लिए तैयार हैं। इसके साथ ही सेनाध्यक्ष ने सीमा पार के आतंकियों को चेतावनी देते हुए कहा कि सरहद के उस पार जो आतंकी हैं, वो तैयार बैठे हैं, हम भी उनके लिए इस तरफ से तैयार बैठे हैं। इसके पहले भी सेना प्रमुख ने सेना दिवस के मौके पर (15 जनवरी) को कहा था कि भारत शांति चाहता है, लेकिन शांति को बाधित किया जाता है तो इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। दिल्ली छावनी में आयोजित कार्यक्रम में जनरल रावत ने कहा कि नई दिल्ली के खिलाफ छद्म युद्ध को दिए जा रहे सहयोग के बावजूद भारत शांति चाहता है। उन्होंने यह बयान पाकिस्तान का नाम  लिए बगैर दिया। मेजर जनरल रावत ने दो टूक कहा कि हम दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन हम शांति बहाली को बाधित करने वालों को चेतावनी देना चाहते हैं कि हम अपनी शक्ति भी अच्छी तरह प्रदर्शित कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आतंकी समझ लें कि अगर वे सीमा पार से हमारे क्षेत्र में घुसने की कोशिश करते हैं तो हम उनका इंतजार कर रहे हैं और इन आतंकियों को जमीन के ढाई फुट नीचे गाड़ दिया जाएगा।

-अनिल नरेन्द्र

छोटी लड़की से दुनिया की सबसे ताकतवर महिला एंजेला मार्केल

एंजेला मार्केल चौथी बार जर्मनी की कमान संभालने को तैयार हैं। बर्लिन के पास छोटे से गांव में पली-बढ़ी मार्केल आज दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में से एक हैं। राजनीतिक कैरियर में उठापटक के बीच उनका कद बढ़ता ही गया। कभी जिस महिला को छोटी लड़की कहकर नजरंदाज किया गया आज वह दुनिया की सबसे ताकतवर महिला मानी जाती है। बेशक जर्मनी के आम चुनाव के नतीजे एक मायने में अनुमान के अनुरूप आए हैं तो एक हद तक चौंकाने वाले भी कहे जा सकते हैं। चांसलर एंजेला मार्केल की पार्टी सीडीयू (क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी) और उसकी सहयोगी पार्टी सीएसयू (क्रिश्चियन सोशल यूनियन) के गठबंधन की जीत या बढ़त तय मानी जा रही थी। परिणाम भी वैसा ही आया। इस तरह कहा जा सकता है कि मार्केल की लोकप्रियता बरकरार है। लेकिन गौरतलब है कि सीडीयू और सीएसयू के गठबंधन को 33 प्रतिशत वोट ही मिल पाए, जोकि दशकों में उसका सबसे कम मत-प्रतिशत है। मार्केल की पार्टी और उसके गठबंधन को 32.8 प्रतिशत मत मिले हैं और जर्मनी की प्रमुख पार्टी (विपक्षी) सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) को केवल 20.7 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह इसलिए अहम है कि दोनों को मतों का नुकसान हुआ है। सत्तारूढ़ गठबंधन को यदि 8.7 प्रतिशत का नुकसान हुआ है तो एसपीडी को भी पांच प्रतिशत मतों का। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि जर्मन राजनीति में इन दोनों ध्रुवों के अलावा भी ध्रुव खड़े हो रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से जर्मनी में जितने भी चुनाव हुए, उनमें सीडीयू और एसपीडी यही दोनों पार्टियां छाई रही हैं। लेकिन ताजा चुनाव नतीजे देखें तो करीब 46 प्रतिशत मतदाताओं ने अन्य दलों को वोट देना पसंद किया और भी उल्लेखनीय बात यह है कि धुर दक्षिणपंथी एएफडी को 13 प्रतिशत वोट मिले हैं और इसी के साथ वह जर्मनी की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी है। मार्केल के गठबंधन को बहुमत नहीं मिला है। इस जनादेश की एक व्याख्या यह है कि मार्केल के विरोधी धुर दक्षिणपंथी और आक्रामक राष्ट्रवादियों ने जो प्रचार किया उसका जनता के एक वर्ग पर असर हुआ है, अन्यथा मतों में इतनी कमी का कोई कारण नहीं हो सकता। दरअसल मार्केल ने सीरिया के शरणार्थियों के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया उससे उनका विरोध बढ़ा अगर उनकी पार्टी चुनाव हार जाती तो उसका मुख्य कारण यही माना जाता। मार्केल के लिए एक बड़ी चुनौती यह भी होगी कि इस्लाम विरोधी धुर दक्षिणपंथी पार्टी आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) पहली बार संसद पहुंच गई है। 13 प्रतिशत वोट लेकर एएफडी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। 2015 में 10 लाख शरणार्थियों को जर्मनी में प्रवेश की इजाजत देने के कारण एएफडी के नेता चांसलर मार्केल को देशद्रोही कहते रहे हैं। पार्टी ने मार्केल की आव्रजन और शरणार्थी नीति को लेकर अब भी विरोध जारी रखने का ऐलान किया है। अब आगे सत्ता चलाने के लिए मार्केल गठबंधन को दूसरी पार्टियों से गठबंधन करना पड़ेगा। ब्रेक्जिट के नतीजे और अमेरिका की कमान डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में आने से यूरोपीय संघ के तमाम नेता असहज महसूस करते रहे हैं। इसलिए भी मार्केल को लेकर जर्मनी ही नहीं, सारे यूरोप में एक उम्मीद का भाव रहा है और यही वजह थी कि जर्मनी के संसदीय चुनावों को बड़ी दिलचस्पी से देखा जा रहा था। मार्केल को फिर एक कार्यकाल मिलने से यूरोपीय संघ ने राहत की सांस जरूर ली होगी पर जबकि यूरोप में अनिश्चय का माहौल है। उसमें जर्मनी का अस्थिर होना क्या परिणाम लाएगा कहना कठिन है। यूरोपीय संघ को बनाए रखने के लिए इसकी धुरी जर्मनी का स्थिर और सशक्त रहना अति आवश्यक है। देखना होगा कि ताजी सियासी मजबूरियों के चलते चांसलर एंजेला मार्केल देश को कितनी स्थिरता प्रदान कर पाती हैं।

Thursday 28 September 2017

वो लड़ाई जब चीन पर भारत भारी पड़ा

जब डोकलाम में चीन और भारत की सेना आमने-सामने थीं तो चीनी मीडिया बार-बार भारत को याद दिलाता था कि 1962 में चीन के सामने भारतीय सैनिकों की क्या गत हुई थी। चीन की सरकारी मीडिया ने कभी भी पांच साल बाद 1967 में नाथुला में हुई उस घटना का जिक्र नहीं किया जिसमें उसे भारत ने चीन को धूल चटाई थी। 1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन ने एक दूसरे के यहां से अपने राजदूत वापस बुला लिए थे। दोनों राजधानियों में एक छोटा मिशन ही जरूरी काम कर रहा था। अचानक अपनी आदत से मजबूर चीन ने आरोप लगाया कि भारतीय मिशन में काम कर रहे दो कर्मचारी भारत के लिए जासूसी कर रहे हैं। उन्होंने इन दोनों को तुरन्त अपने यहां से निष्कासित कर दिया। चीन यहीं पर नहीं रुका। वहां की पुलिस और सुरक्षाबलों ने भारत के दूतावास को चारों तरफ से घेर लिया और उसके अंदर और बाहर जाने वाले लोगों पर रोक लगा दी। भारत ने भी चीन के साथ यही सलूक किया। यह कार्रवाई तीन जुलाई, 1967 को शुरू हुई और अगस्त में जाकर दोनों देश एक-दूसरे के दूतावासों की घेराबंदी तोड़ने के लिए राजी हुए। उन्हीं दिनों चीन ने शिकायत की कि भारतीय सैनिक उनकी भेड़ों के झुंड को भारत में हांककर ले गए हैं। उस समय विपक्ष की एक पार्टी भारतीय जनसंघ ने इसका अजीबोगरीब ढंग से विरोध करने का फैसला किया। उस समय पार्टी के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने, चीन के नई दिल्ली में शांति पथ स्थित दूतावास में भेड़ों के एक झुंड को लेकर घुस गए। इससे पहले 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में जब भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ने लगा तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खां गुप्त रूप से चीन गए और उन्होंने चीन से अनुरोध किया कि पाकिस्तान पर दबाव हटाने के लिए भारत पर वह सैनिक दबाव बनाए। लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी के लेखक मेजर जनरल वीके सिंह बताते हैंöइत्तेफाक से मैं उन दिनों सिक्किम में ही तैनात था। चीन ने पाकिस्तान की मदद करने के लिए भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया कि वो सिक्किम की सीमा नाथुला और जेलेपला की सीमा चौकियां खाली कर दे। उस समय हमारी मुख्य सुरक्षा लाइन छंगू पर थी। कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल बेबूर ने जनरल सगत सिंह को आदेश भी दे दिया कि इन चौकियों को खाली कर दीजिए। लेकिन जनरल सगत ने कहा कि इसे खाली करना बहुत बड़ी बेवकूफी होगी। नाथुला ऊंचाई पर है और वहां से चीनी क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर रखी जा सकती है। अगर हम उसे खाली कर देंगे तो चीनी आगे बढ़ आएंगे और वहां से सिक्किम में हो रही हर गतिविधि को साफ-साफ देख पाएंगे। नाथुला को खाली करने के बारे में फैसला लेने का अधिकार मेरा होगा। मैं ऐसा नहीं करने जा रहा। दूसरी तरफ 27 माउंटेन डिवीजन ने जिसके अधिकार क्षेत्र में जेलेपला आता था, वो चौकी खाली कर दी। चीन के सैनिकों ने फौरन आगे बढ़कर उस पर कब्जा कर लिया। यह चौकी आज तक चीन के नियंत्रण में है। इसके बाद चीनियों ने 17 असम राइफल की एक बटालियन पर घात लगाकर हमला कर दिया जिसमें उसके दो सैनिक मारे गए। सगत सिंह इस पर बहुत नाराज हुए और उन्होंने उसी समय तय कर लिया कि मौका आने पर इसका बदला लेंगे। उस समय नाथुला में तैनात मेजर जनरल थेरू थपलियाल लिखते हैंöनाथुला में दोनों सेनाओं के बीच कथित सीमा पर गश्त के साथ धक्का-मुक्की व दोनों देशों के फौजियों के बीच तू-तू मैं-मैं होने लगी। छह सितम्बर 1967 को भारतीय सैनिकों ने चीन के राजनीतिक कमिश्नर को धक्का देकर 1962 का खौफ निकाल दिया। भारत के कड़े विरोध का इतना असर हुआ कि चीन ने भारत को यहां तक धमकी दे दी कि वो उसके खिलाफ अपनी वायुसेना का इस्तेमाल करेगा। लेकिन भारत पर इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ। इतना ही नहीं, 15 दिनों बाद एक अक्तूबर 1967 को सिक्किम में ही एक और जगह चो ला में भारत और चीन के सैनिकों के बीच एक और भिड़ंत हुई। इसमें भी भारतीय सैनिकों ने चीन का जबरदस्त मुकाबला किया और उनके सैनिकों को तीन किलोमीटर अंदर काम बैरक्स तक धकेल दिया। दिलचस्प बात यह है कि जब 15 सितम्बर 1967 को लड़ाई रुकी जो मारे गए भारतीय सैनिकों के शवों को रिसीव करने के लिए सीमा पर इस समय पूर्वी कमान के प्रमुख सैम मानेकशॉ, जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और जनरल सगत सिंह मौजूद थे। इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएटिड एडिटर सुशांत सिंह बताते हैं कि 1962 की लड़ाई में चीन के 740 सैनिक मारे गए थे, यह लड़ाई करीब एक महीना चली थी और इसका क्षेत्र लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ था। अगर हम मानें कि 1967 में मात्र तीन दिनों में चीनियों को 300 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा, यह बहुत बड़ी संख्या थी। इस लड़ाई के बाद काफी हद तक 1962 का खौफ निकल गया। भारतीय सैनिकों को पहली बार लगा कि चीनी भी हमारी तरह हैं और वो पिट सकते हैं और हार सकते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

एक और कलम का सिपाही शहीद हुआ

एक और पत्रकार की हत्या कर दी गई है। सीनियर पत्रकार केजे सिंह (69) व उनकी मां गुरचरण कौर (92) की उनके मोहाली स्थित मकान में हत्या कर दी गई। केजे सिंह के पेट व गले पर चाकुओं से हमला किया गया जबकि उनकी मां को गला दबाकर मारा गया। दोनों के शव अलग-अलग कमरों में पड़े मिले। हत्यारे केजे सिंह की 20 साल पुराने हरे रंग की फोर्ड आइकॉन कार और एलईडी भी ले गए। चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस, द ट्रिब्यून और टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व समाचार संपादक की हत्या प्रोफेशनल हत्यारों ने की हो सकती है। श्री सिंह के शरीर पर 14-16 चाकू मारने के निशान थे। एक निशान तो उनके दिल के करीब था। उनके दाहिने हाथ की अंगुलियां भी कटी हुई थीं। पिछले कुछ समय से कई पत्रकारों की हत्या के मामले सामने आए हैं। पुलिस सूत्रों के मुताबिक जांच को भटकाने के लिए लुटेरे घर से टीवी और कार ले गए हैं क्योंकि घर का कीमती सामान घर में ही पड़ा है। यहां तक कि केजे सिंह के गले में सोने की चेन और मां गुरचरण कौर का सारा सोना भी वैसे ही पड़ा था। केजे Eिसह के घर में ही स्टूडियो बना था। उनका लैपटॉप और कैमरा भी लुटेरे नहीं लेकर गए। यह हादसा पिछले शनिवार को हुआ। पंजाब, हरियाणा और संघ शासित प्रदेश चंडीगढ़ में मीडिया बिरादरी ने इस कथित हत्याओं की कड़ी निन्दा की है और दोषियों की तत्वरित गिरफ्तारी की मांग की है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के निर्देश पर पंजाब पुलिस ने इस हत्याकांड की जांच के लिए आईजी (अपराध) के नेतृत्व में विशेष जांच टीम का गठन किया है। पुलिस को शक है कि किसी अज्ञात मकसद के लिए उनका कत्ल किया गया है। गौरी लंकेश और असम में टीवी पत्रकार की हत्या के बाद अब केजे सिंह की हत्या? पत्रकारों पर हो रहे लगातार हमलों के देखते हुए दो अक्तूबर को नई दिल्ली में पत्रकार शांतिपूर्ण धरना देंगे। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन वूमैन प्रेस कार्प्स, प्रेस एसोसिएशन और फेडरेशन ऑफ प्रेस क्लब्स ने मिलकर यह प्रस्ताव पारित किया है। बैठक में मांग की गई कि पत्रकारों की हत्या और उन्हें धमकाने जैसे मामलों में सभी राज्य सरकारें कानून के तहत समयबद्ध तरीके से एक्शन लें। इस दौरान पत्रकारों पर लगातार हमले को लेकर चिन्ता जताते हुए इसे लोकतंत्र पर हमला करार दिया गया फिर चाहे वो सोशल मीडिया पर धमकी हो या पिटाई हो या फिर हत्या हो। पत्रकारों ने बैठक के दौरान आवाज उठाई कि ज्यादातर पत्रकार बिना किसी सोशल सुरक्षा के जी रहे हैं। पेंशन, हेल्थ बीमा जैसी सुविधाएं भी उन्हें नहीं मिलतीं। ज्यादातर पत्रकार अपने परिवार में इकलौते कमाने वाले हैं। पत्रकारों पर हमला प्रेस की आजादी पर सीधा हमला है जिसे रोकने की सख्त जरूरत है।

Wednesday 27 September 2017

करोड़ों लोगों की जीवनरेखा इन नदियों को बचाओ

करोड़ों लोगों की जीवनरेखा, आजीविका और टूरिस्ट अट्रैक्शन की जगह रही भारत की सदा नीरा नदियां आज अपने सुनहरे अतीत की छाया मात्र रह गई हैं। लगातार सूखते जाने से पार सिकुड़ने लगे हैं, प्रदूषण ने उन्हें मैला कर दिया है और कहीं-कहीं नदियों का जल पीने तो क्या, नहाने के काबिल भी नहीं रह गया। ऐसे में यह प्रसन्नता और संतोष की बात है कि आखिर किसी ने तो नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए बीड़ा उठाया है। विश्वविख्यात ईशा फाउंडेशन के संस्थापक, योगीराज, जाने-माने लेखक और वक्ता सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने यह देशव्यापी अभियान छेड़ा है। पद्मविभूषण सद्गुरु जग्गी वासुदेव गांधी जयंती (दो अक्तूबर) को दिल्ली में नदी रैली से समाप्त होने वाले 30 दिनों के इस अभियान के दौरान कन्याकुमारी से हिमालय तक देश के कुल 16 राज्यों का सफर खुद गाड़ी चलाकर तय करते हुए देश की जनता को इस बात के लिए जागरूक कर रहे हैं कि अगर समय रहते हमने कदम नहीं उठाया तो अगली पीढ़ी पीने के पानी तक को तरस जाएगी। दरअसल हम अपनी नदियों को पहले ही इतना नुकसान पहुंचा चुके हैं कि अगली पीढ़ी को नुकसान पहुंचाने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। यह काम किसी एक के वश में नहीं है, इसलिए केंद्र सरकार से हम चाहते हैं कि वह नदियों को पुनर्जीवन के लिए दूरगामी परिणामों वाली बाध्यकारी नीति बनाए जिसे लागू किया जा सके। हम चाहते हैं कि वह हर इंसान जो पानी पीता है नदी अभियान में अपना सहयोग दे। सद्गुरु बताते हैं कि हालत कितनी खराब है? बहुत ही खराब। अपना बचपन मैंने कर्नाटक में कावेरी के तट पर गुजारा है। यात्रा के दौरान मैंने देखा कि जिस कावेरी को जिस जगह मैं रोज तैर कर पार करता था, वहां अब उसे चलकर पार किया जा सकता है। दरअसल यह इतनी सिमट गई है कि विलीन होने के लिए समुद्र का सफर तय करने से 870 किलोमीटर पहले ही थम जाती है। आंध्र की कृष्णा नदी तो लगभग पूरी तरह ही सूख गई है। नर्मदा 60 फीसदी सिकुड़ गई है और शिप्रा का पानी उसका अपना नहीं, बंद किया हुआ पानी है। गंगा तो विश्व की उन नदियों में है जिसका अस्तित्व सबसे अधिक संकट में है। नदियों की इस दुर्दशा के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। देश की 25 फीसद जमीन रेगिस्तान बनने लगी है। 55 फीसद भूजल तेजी से कम हो रहा है। 10 साल में हमारे जलाशयों में पानी का स्तर 30 फीसद घट गया है। खासकर पिछले सात सालों से तो भारत की लगभग सभी नदियां इतनी तेजी से सूख रही हैं कि लगता है कि बारहों महीने बहने वाली ये नदियां अगले 15 से 20 वर्ष में मौसमी हो जाएंगी। हालात ऐसे हैं कि 2030 तक हमें अपनी जरूरत का केवल 50 फीसद पानी ही मिल पाएगा। इसलिए समय रहते अगर हर स्तर पर उचित कार्रवाई नहीं की तो हमारी नदियां सूख जाएंगी और लोग पानी के लिए तरसने लगेंगे।

-अनिल नरेन्द्र

आखिर बीएचयू छात्राओं का कसूर क्या था?

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शनिवार की रात छात्र-छात्राओं पर जो पुलिस का लाठीचार्ज हुआ उसका जिम्मेदार कौन है? अगर ठीक समय पर इसे हैंडल किया जाता तो यह स्थिति न बनती। घटना की शुरुआत तब हुई जब विश्वविद्यालय परिसर में छात्राओं से बढ़ती छेड़खानी की घटनाओं के खिलाफ विश्वविद्यालय के विद्यार्थी गुरुवार से ही विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इस विरोध प्रदर्शन की शुरुआत तब हुई जब कला संकाय की एक छात्रा अपने हॉस्टल लौट रही थी। मोटर साइकिल सवार तीन लोगों ने कथित तौर पर उससे छेड़छाड़ की। शिकायतकर्ता के अनुसार जब उसने उनके प्रयासों का प्रतिकार किया तो तीन लोगों ने उसके साथ गाली-गलौज की और उसके बाद भाग गए। छात्रा ने आरोप लगाया कि घटनास्थल से तकरीबन 100 मीटर दूर पर मौजूद सुरक्षागार्डों ने उन लोगों को रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। उसने अपने वरिष्ठ छात्रों को इस बारे में बताने की जगह वार्डन को घटना की जानकारी दी। वार्डन ने इस पर उससे उलटा पूछा कि वह इतनी देर से हॉस्टल क्यों लौट रही थी। वार्डन के जवाब ने छात्रा के साथियों को नाराज कर दिया। वे गुरुवार रात्रि परिसर के मुख्य द्वार पर धरने पर बैठ गए। इस विरोध प्रदर्शन ने शनिवार रात हिंसक रूप ले लिया। शनिवार रात पुलिस ने छात्राओं पर लाठीचार्ज किया जिसमें कुछ छात्राओं समेत कई छात्र और दो पत्रकार घायल हो गए। इस दौरान आगजनी भी हुई। विश्वविद्यालय के परिसर में छात्राओं के साथ सरेराह छेड़खानी, भद्दी और लज्जाजनक टिप्पणियां-फब्तियां, कपड़े उतारने की घिनौनी हरकत रोजाना की बात हो गई है। छात्रों की मांग इन्हीं सब हरकतों पर विश्वविद्यालय प्रशासन (प्रॉक्टर) और कुलपति जीसी त्रिपाठी से रोक लगाने की थी, जिसे हर किसी ने अनसुना कर दिया। न तो विश्वविद्यालय की सुरक्षा के लिए नियुक्त सुरक्षाकर्मियों ने छात्राओं को सुरक्षित होने का भरोसा दिलाया न विश्वविद्यालय के कुलपति ने मामले को संजीदगी से लिया। आंदोलनरत छात्राओं से मिलना तक मुनासिब नहीं समझा। मजबूरन छात्राओं को सड़कों पर उतरना पड़ा। अगर छात्राओं की तकलीफ को निष्पक्ष नजरिये से देखें तो उनकी मांगें अराजक और राजनीति से प्रेरित कैसे हो गईं? बच्चियों की बस तीन-चार ही तो मांगें थींöछात्रावास में आने-जाने वाला मार्ग सुरक्षित हो, सुरक्षा अधिकारी की तैनाती हो, छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकने के लिए गंभीरता से प्रयास हों और आने-जाने वाले मार्गों खासकर हॉस्टल वाले रास्तों पर सीसीटीवी से निगरानी हो इत्यादि-इत्यादि। इन मांगों में अराजक और अपमानजक क्या है? बजाय छात्राओं की जायज मांगें मांगने के उलटा उन पर ही राजनीति से प्रेरित होने का आरोप लगा दिया गया। जिस विश्वविद्यालय को उसके गरिमामयी इतिहास के तौर पर स्मरण किया जाता है। अगर वहां अपनी सुरक्षा के लिए मांग पत्र सौंपना और धरना देना अनुशासनहीनता है तो फिर हमें कुछ कहने के लिए कुछ भी नहीं बचता। यह घटनाक्रम इसलिए ज्यादा दुखद है कि यह प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में तब हुआ जब वह स्वयं और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ मौजूद थे। सीधे तौर पर सतही कोशिश, प्रशासनिक विफलता, अकर्मण्यता, लापरवाही, अक्खड़पन, अधिकारियों की मिस हैंडलिंग व जिम्मेदारी से बचने का मामला है। हम तो कुलपति और प्रॉक्टर को सीधा जिम्मेदार मानते हैं। बेशक योगी आदित्यनाथ ने तीन अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट और दो पुलिसकर्मियों को हटा दिया हो पर असल कसूरवार तो कुलपति, प्रॉक्टर और विश्वविद्यालय प्रशासन है, उन पर क्या कार्रवाई हो रही है? बेटियों के हाथों भविष्य और बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ जैसे नारे क्या कोरे नारे हैं?

Tuesday 26 September 2017

...और अब शंकराचार्यों की लड़ाई अदालत में

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक उत्तराखंड की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी का मामला करीब पिछले 28 साल से अदालतों में है। शंकराचार्य विष्णु देवाचन्द के निधन के बाद 1989 में विवाद हो गया था। आठ अप्रैल 1989 को ज्योतिषपीठ के वरिष्ठ संत कृष्ण बोधाश्रम की वसीयत के आधार पर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने खुद को शंकराचार्य घोषित कर दिया। वहीं शांतानन्द ने 15 अप्रैल को स्वामी वासुदेवानन्द को शंकराचार्य की पदवी दे दी। वासुदेवानन्द अदालत चले गए। जिला अदालत में तीन साल पहले सुनवाई शुरू हुई। कोर्ट ने पांच मई 2015 को स्वामी स्वरूपानंद के हक में फैसला सुनाया। वासुदेवानन्द हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट को जल्द विवाद निपटाने को कहा। इसी बीच स्वरूपानन्द ने भी हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर मामले का निपटारा जल्द करने की मांग की। शुक्रवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इन दोनों को ही शंकराचार्य मानने से इंकार कर दिया और आदेश दिया कि तीन महीने में ज्योतिषपीठ का नया शंकराचार्य चुने। स्वरूपानन्द अब इस फैसले के बाद सिर्फ द्वारका पीठ के शंकराचार्य रहेंगे। जस्टिस सुधीर अग्रवाल और केजे ठाकुर की बैंच ने स्वघोषित शंकराचार्यों पर कटाक्ष करते हुए कहाöस्वामी स्वरूपानन्द और स्वामी वासुदेवानन्द को वैध शंकराचार्य नहीं माना जा सकता। हाई कोर्ट ने कहा कि आदि शंकराचार्य द्वारा घोषित चार पीठ ही वैध हैं। ज्योतिषपीठ के लिए अखिल भारत धर्म महामंडल और काशी परिषद तीनों पीठों के शंकराचार्यों की मदद से योग्य संन्यासी को शंकराचार्य घोषित करें। यह सारा काम 1941 की प्रक्रिया के तहत किया जाए। नया शंकराचार्य चुनने तक स्वरूपानन्द ही काम देखते रहेंगे। वहीं स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती के छतर भंवर सिंहासन धारण करने पर रोक भी जारी रहेगी। पीठ ने कहा कि सरकार ऐसे स्वयंभू और अनाधिकृत रूप से मठों के प्रधान, महंत या धार्मिक संस्था के प्रधान बने लोगों के खिलाफ कदम उठाए। आदि शंकराचार्य ने सिर्फ चार पीठों की स्थापना की है। इनमें उत्तर में ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम, पश्चिम में शारदा पीठ, दक्षिण में श्रंगेरी मठ मैसूर और पूर्व में गोवर्धन मठ पूरी हैं। इसके अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति को शंकराचार्य की पदवी, पद धारण करने का अधिकार नहीं है। ऐसा करना सनातन धर्मानुयायियों के साथ मात्र धोखा है। इन मठों की स्थापना के साथ उनकी रक्षा के लिए अखाड़े भी बनाए। इनमें अलग-अलग मठों के लिए दशनामी संन्यासी भी तैयार किए गए। पर इस समय कई अन्य पीठ स्थापित हो गए हैं और कइयों ने अपने को स्वयं शंकराचार्य घोषित कर लिया है। विवाद न्यायालय में पहुंचने लगे और कोर्ट को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

ठिठकती अर्थव्यवस्था ः तीन साल में न्यूनतम स्तर पर

लगातार पांच तिमाहियों से विकास दर में जारी गिरावट से सरकार का चिन्तित होना समझ आता है क्योंकि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खासा जोर सत्ता में आने के बाद से विकास पर रहा है। अर्थव्यवस्था के मोर्चे से आ रही निराशाजनक खबरों व अर्थव्यवस्था की सुस्ती को लेकर विपक्ष ही नहीं, सरकार के समर्थक भी उसे घेरने लगे हैं। भाजपा सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तो यहां तक कह दिया कि अगर तत्काल कुछ नहीं किया गया तो बैंक बर्बाद हो सकते हैं, फैक्ट्रियां बंद होनी शुरू हो सकती हैं और अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार हो सकती है। मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं को इसी परिकल्पना से शुरू किया गया था कि इनमें विकास को गति मिलेगी और रोजगार पैदा होंगे। दो तिमाही पहले तक भारत ने न केवल चीन को पछाड़ रखा था बल्कि वह दुनिया की सबसे तेज गति वाली अर्थव्यवस्था भी बन गया था। मगर इस वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक विकास में न केवल गिरावट आई है बल्कि यह मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 5.7 फीसदी के साथ सबसे निचले स्तर पर भी है। मसलन प्रधानमंत्री कौशल विकास कार्यक्रम को ही लें तो इसके तहत 30 लाख लोगों को या तो पंजीयन किया गया या उन्हें प्रशिक्षित किया गया, मगर इसमें से 10 फीसदी को ही रोजगार मिल सका। वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि मात्र 5.7 फीसद रही, जो तीन साल का न्यूनतम स्तर है। हमारे निर्यात के समक्ष चुनौतियां बनी हुई हैं और औद्योगिक वृद्धि दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर आ गई है। दूसरी तरफ महंगाई आसमान छू रही है। सरकार अब भी मानने के लिए तैयार नहीं है कि देश की आर्थिक विकास दर में सुस्ती के पीछे पिछले वर्ष की गई नोटबंदी एक बड़ा कारण थी। इसकी वजह से औद्योगिक विकास के साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने हाल ही में कहा भी कि नोटबंदी से भविष्य में होने वाले दूरगामी फायदों पर इसके कारण हुआ तात्कालिक नुकसान भारी पड़ा है। इसके अलावा जीएसटी के कारण हो रही शुरुआती अड़चनों के कारण भी व्यापारी वर्ग और अन्य वर्गों में कुछ असमंजस की स्थिति बनी हुई है। दुख तो इस बात का है कि नोटबंदी की तरह जीएसटी को भी बिना ठीक से होमवर्क किए लागू कर दिया गया। आज पूरे देश में जीएसटी को लेकर इतना असंतोष है कि हर वर्ग परेशान है। वित्त मंत्रालय की सोच यह थी कि जीएसटी से भरपूर टैक्स वसूली हो जाएगी, जिसे वह कुछ परियोजनाओं में लगा देगी। इस तरह तत्काल कुछ मांग पैदा होगी और इकोनॉमी हरकत में आ जाएगी। लेकिन जीएसटी से जुलाई तक करीब 50 हजार करोड़ रुपए के अप्रत्यक्ष कर की प्राप्ति हो सकी है। लाखों कंपनियां जीएसटी सिस्टम का ढंग से पालन नहीं कर पा रही हैं। कुछ को रिटर्न फाइल करने में मुश्किलें आ रही हैं तो कुछ को स्लैब सिस्टम समझ नहीं आ रहा। इस बात की भी चिन्ता है कि देश के अन्य भागों में बाढ़ के बावजूद देश के एक-तिहाई जिले सूखे की चपेट में हैं जिसका असर आने वाले समय में महंगाई पर पड़ सकता है। देश के आधे हिस्से में अतिवृष्टि और बाकी आधे में अनावृष्टि दर्ज की गई। इसलिए खाद्यान्न की पैदावार को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। विश्व अर्थव्यवस्था में भारतीय निर्यात बढ़ाने की कोई गुंजाइश नहीं निकल रही। कुल मिलाकर चारों तरफ से रास्ता बंद दिखता है। वास्तव में सरकार को औद्योगिक विकास के साथ ही ग्रामीण क्षेत्र की हताशा दूर करने की दोहरी चुनौती से निपटना है ताकि विकास का इंजन तेजी से आगे बढ़ सके।

Sunday 24 September 2017

इकबाल कासकर की गिरफ्तारी के पीछे?

कुख्यात सरगना और 1993 के मुंबई विस्फोट कांड के मुख्य आरोपी दाऊद इब्राहिम के भाई इकबाल कासकर को महाराष्ट्र पुलिस की ठाणे सेल ने जबरन वसूली के मामले में गिरफ्तार किया है। पुलिस ने बताया कि एक बिल्डर ने जबरन वसूली के लिए फोन कॉल आने की शिकायत उनसे की। जांच में खुलासा हुआ कि कई लोग दाऊद के नाम पर धमकी दे रहे हैं। इनमें बिल्डर के अलावा सर्राफा कारोबारी शामिल हैं। फोन कॉल गुर्गों के अलावा कासकर भी करता था। इकबाल कासकर और उसके गुर्गों की गिरफ्तारी के बाद पुलिस यह पता करने में लगी है कि क्या यह सब दाऊद इब्राहिम के इशारे पर हो रहा था? दाऊद के भाई कासकर के रैकेट से एनसीपी नेताओं की साठगांठ का भी पता लगाया जा रहा है। सोमवार शाम इकबाल कासकर को उसकी बहन हसीना के सेंट्रल मुंबई के नागपाड़ा स्थित घर से हिरासत में लिया गया। पुलिस जब उसके घर पहुंची तो वह बिरयानी खाते हुए टीवी पर कौन बनेगा करोड़पति देख रहा था। पुलिस का कहना है कि जिस दौरान कासकर को गिरफ्तार किया गया उस दौरान उसके साथ इकबाल, ड्रग डीलर मोहम्मद हुसैन ख्वाजा शेख और फर्नांडो थे। पुलिस इन लोगों को पूछताछ के लिए साथ ले आई। कासकर के गुर्गे ठाणे के एक नामी बिल्डर को 2013 में ही दाऊद के नाम पर धमकी दे रहे थे और अब तक उससे 30 लाख रुपए और लगभग पांच करोड़ रुपए के चार फ्लैट ले चुके हैं। शिकायतकर्ता से 2014 से ही वसूली चल रही थी। कुछ दिनों पहले इस बिल्डर ने ठाणे के कसरवाडावली पुलिस स्टेशन में आईपीसी की कई धाराओं के तहत शिकायत दर्ज कराई थी। क्या दाऊद इब्राहिम एक बार फिर मुंबई की सरजमीं पर अपने खौफ की दुनिया को सक्रिय कर रहा है? डी कंपनी के सरगना के सगे भाई इकबाल कासकर की गिरफ्तारी से जो बातें सामने आ रही हैं उससे तो यही लगता है कि मायानगरी में अंडरवर्ल्ड की जड़ें फिर से पनपने लगी हैं। बता दें कि इकबाल कासकर 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों के समय ही दुबई भाग गया था। उसे 2003 में प्रत्यर्पित करके भारत लाया गया था। उस पर मुंबई में चर्चित रहा सहारा मामले में मुकदमा चलाया गया था जिसमें वह सबूतों के अभाव में बरी हो गया था। वह हत्या के एक मामले में वांछित था। हालांकि इस मामले में उसे 2007 में बरी कर दिया गया था। वह भारत में रह रहा दाऊद का एकमात्र भाई है। वह दाऊद के रीयल एस्टेट कारोबार को देखता है। क्या जिस तरह से भारत सरकार ने दाऊद इब्राहिम पर धावा बोला है, इकबाल की गिरफ्तारी उसकी एक कड़ी है? दाऊद पर चौतरफा दबाव और शिकंजा कसता जा रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

क्यों नहीं हो सकते मोहर्रम और दुर्गा विसर्जन एक साथ

कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को करारा झटका देते हुए उसके विवादास्पद फैसले को रद्द कर दिया है। मोहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर रोक के आदेश को खारिज करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिम बंगाल की सरकार को कड़ी फटकार लगाई। इस बार 30 सितम्बर को विजयदशमी और एक अक्तूबर को मोहर्रम पड़ रहा है। कानून व्यवस्था का बहाना बनाकर ममता सरकार ने 30 सितम्बर यानि विजयदशमी को रात 10 बजे के बाद और एक अक्तूबर को प्रतिमा विजर्सन पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। सरकार के इसी फैसले को चुनौती देने के लिए तीन याचिकाएं दर्ज की गई थीं। हाई कोर्ट ने बुधवार को इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई की थी। कोर्ट ने पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार से दो टूक पूछा कि दो समुदाय एक साथ क्यों त्यौहार नहीं मना सकते? हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि अब आप (राज्य सरकार) दावा कर रही हैं कि राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव है तो फिर आप संप्रदाय के आधार पर भेदभाव क्यों कर रही हैं? हाई कोर्ट ने आगे सख्त लहजे में कहाöदोनों समुदाय यानि हिन्दू और मुस्लिम को सद्भाव से ही रहने दीजिए। उनके बीच किसी तरह की लाइन न खींचें। उनको साथ ही रहने दें। इस मामले की शुरुआत कुछ दिनों पहले हुई। पश्चिम बंगाल सरकार ने एक अक्तूबर को दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि उस दिन मोहर्रम भी है। दोनों के जुलूस अगर साथ-साथ निकलेंगे तो अशांति का खतरा है। अन्य हिन्दू संगठनों के अलावा भाजपा और आरएसएस ने ममता सरकार के इस फरमान का विरोध किया। भाजपा का आरोप है कि ममता सरकार तुष्टिकरण की राजनीति कर रही है और इसीलिए उसने दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगाई। उधर ममता बनर्जी ने इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहाöकोई मेरा गला काट सकता है, लेकिन यह नहीं बता सकता है कि क्या करना है। मैं शांति बनाए रखने के लिए जो जरूरी होगा, वो करूंगी। हाई कोर्ट ने साफ कहा कि सरकार के पास अधिकार है, इसका मतलब यह नहीं कि वह अधिकारों का बेजा इस्तेमाल कर सकती है। बिना किसी ठोस वजह के नागरिकों के अधिकार नहीं छीने जा सकते। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में पर्व-त्यौहारों का एक-दूसरे से टकराना कोई नई बात नहीं है। आम आबादी एक-दूसरे की परंपराओं और रीति-रिवाजों का सम्मान करते हुए जीने की आदी है। यह समझना भी कठिन है कि ममता सरकार को यह क्यों लगा कि प्रतिमा विसर्जन से मोहर्रम संबंधी योजनाओं में खलल पड़ सकता है या फिर मोहर्रम के ताजिये प्रतिमा विसर्जन में बाधा बन सकते हैं? आखिर पश्चिम बंगाल के पुलिस प्रशासन को देश के अन्य हिस्सों की तरह दुर्गा प्रतिमा की शोभा यात्राओं और ताजिया जुलूस के लिए अलग-अलग रूट निर्धारित करने में क्या कठिनाई थी? जहां विभिन्न समुदायों की ओर से मिलजुल कर अपने त्यौहार मनाने और एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं का आदर करने की  लंबी परंपरा रही हो वहां उनके बीच विभाजन की लकीर खींचना उचित नहीं। शासकों को केवल निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए, बल्कि ऐसे दिखना भी चाहिए। छोटी-मोटी अड़चनें जिला प्रशासन के स्तर पर ही हल होती रही हैं। अमूमन तो जिला प्रशासन को भी हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं होती, लेकिन किसी तरह के तनाव की आशंका होने पर स्थानीय पुलिस दोनों समुदायों के प्रमुख लोगों के बीच बैठक और बातचीत करवा कर ऐसा रास्ता निकाल लेती है जो सबको मंजूर होता है। यह मानने का कोई कारण नहीं कि मोहर्रम के जुलूस और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के रूट तथा समय को लेकर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी। इसका प्रयास किए बगैर सीधे ममता सरकार के स्तर पर प्रतिमा विसर्जन पर लगी रोक इस धारणा को जड़ जमाने का मौका देती है कि ममता बनर्जी वोट बैंक के तुष्टिकरण का गंदा खेल खेलना चाहती हैं। इससे एक धार्मिक और सांस्कृतिक मामले पर बेवजह गंदी राजनीति शुरू हो गई है। अच्छा हुआ कि हाई कोर्ट के सख्त रुख से यह मामला और बिगड़ने से बच गया।

Saturday 23 September 2017

कितनी सुरक्षित हैं दिल्ली की सड़कें पैदल यात्रियों के लिए

राजधानी दिल्ली की सड़कें पैदल यात्रियों के लिए कितनी सुरक्षात हैं जानलेवा हादसों से साबित होता है। तमाम दावों के बावजूद दिल्ली में पैदल यात्रियों के साथ जानलेवा सड़क हादसों में कमी नहीं आ रही है। वर्ष 2016 में हुई कुल जानलेवा दुर्घटनाओं में से पैदल यात्रियों के साथ हुए हादसों का प्रतिशत 42.9 रहा। वर्ष 2015 में जहां 684 पैदल यात्री मारे गए थे, वहीं 2016 में भी यह आंकड़ा 1683 तक जा पहुंचा। इस वर्ष अगस्त माह तक ही पैदल यात्रियों की मौत का आंकड़ा 500 को पार कर चुका है। ट्रैफिक पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक पैदल यात्रियों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं की मुख्य वजह वाहनों की तेज रफ्तार, सड़कों की गलत बनावट, सड़कों पर रोशनी के उपायों की कमी होना है। इसके अलावा रात में सड़कों पर फुटपाथ पर लोगों का सोना व पुलिस की मौजूदगी कम होने से वाहन चालक ट्रैफिक नियमों की परवाह नहीं करते। ट्रैफिक लाइट्स बंद होने से भी यह समस्या बढ़ जाती है। सड़क पार करने के लिए दिल्ली में पर्याप्त पैदल यात्री संकेतक नहीं हैं। पैदल यात्री सुरक्षित तरीके से रोड पार कर सकें, उसके लिए ज्यादा से ज्यादा संख्या में पेलिकॉन सिग्नल लगाने चाहिए। मगर अभी तक ऐसा नहीं हो पाया। दिल्ली में करीब 50 पेलिकॉन सिग्नल काम कर रहे हैं और इतने ही खराब पड़े हैं। पेलिकॉन सिग्नल से वाहन चालकों का समय बचेगा, साथ ही पैदल यात्री सुरक्षित तरीके से सड़क पार कर सकेंगे। दिल्ली की करीब 70 सड़कें ऐसी हैं, जहां सेंट्रल वर्ज टूटे हैं या फिर ग्रिल गायब हैं। इन्हीं जगहों पर दुपहिये वाहन चालक और पैदल यात्री शॉर्टकट लगाने का प्रयास करते हैं। संकेतक रहित करीब 480 चौराहों पर भी पैदल यात्रियों के लिए बड़ा खतरा है। कई चौराहों पर जेबरा क्रॉसिंग, स्टॉप लाइन व पैदल यात्री थम संकेतक गायब हैं। चौराहों पर पर्याप्त संकेतक न होने के कारण पैदल यात्री हादसे के शिकार होते हैं। यहां बसों में शाम के समय जल्द से जल्द स्टॉप पर पहुंचने की होड़-सी लग जाती है। जल्दी पहुंचने के चक्कर में यह भी नहीं देखते कि अमुक व्यक्ति सड़क पार कर रहा है। उन्हें मालूम है कि अगर वह उस पर बस सढ़ा भी देते हैं तो कोई बड़ा खामियाजा उन्हें नहीं भुगतना पड़ेगा। आए दिन इन बेतहाशा रफ्तार से चलने वाली बसों के पैदल चलने वाले शिकार होते हैं। पैदल यात्रियों के साथ होने वाले सड़क हादसों को रोकने के लिए दिल्ली सरकार और टैफिक पुलिस ने पांच वर्ष पहले सभी सड़कों पर फुटपाथ व ब्रिज, सब-वे, पैदल यात्री संकेतक, यात्रियों के लिए सुविधाजनक फुटपाथ, सड़क के मध्य ग्रिल और एस्कलेटर बनाने की घोषणा की थी मगर पांच वर्षों बाद भी इनमें से एक भी काम पूरा नहीं हुआ है।

-अनिल नरेन्द्र

राहुल गांधी का नया अवतार

देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों अमेरिका के दौरे पर हैं। वहां वह छात्रों, थिंक टैंक व बुद्धिजीवी वर्ग से रूबरू हो रहे हैं। उनके भाषणों की चर्चा चारों ओर हो रही है। अमेरिका में वह देश की नीतियों पर प्रधानमंत्री मोदी के उठाए गए कदमों पर तीखे सवाल कर रहे हैं। छवि निर्माण के लिहाज से उनका यह दौरा काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वह अपनी पार्टी की हार के कारणों पर भी खुलकर चर्चा कर रहे हैं। हालांकि राहुल की साफगोई की चर्चा हो रही है पर सबसे ज्यादा चर्चा है जनता से जुड़े मुद्दों के चयन की। राहुल गांधी की आमतौर पर छवि एक नासमझ व नाकाबिल नेता के रूप में बन गई है। उनका यह अमेरिका का दौरा यह साबित करने का प्रयास है कि वह प्वाइंट टू प्वाइंट बात करके अपना नया अवतार दिखाना चाहते हैं। भारतीय राजनीति में तो वह एक बड़े राजनीतिक घराने के युवा और आकर्षक शख्सियत के तौर पर ही जाने जाते रहे हैं। यहां तक कि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा उन्हें नॉन परफॉर्मर नेता के तौर पर ही प्रचारित करती है। लेकिन जिस तरह पिछले कुछ दिनों से राहुल ने विदेश में विभिन्न मसलों पर केंद्र में सत्तासीन भाजपा की सरकार को घेरा है, उससे उनकी छवि गंभीर और परिपक्व नेता की बनी है। राहुल के आक्रामक तेवर और सही मुद्दों को उठाने से उनकी पार्टी कांग्रेस में एक नया उत्साह व उम्मीद बन रही है। अपनी पुरानी बनी छवि तोड़ने की दिशा में यह दौरा राहुल के लिए अच्छी शुरुआत है। यह आलोचना हो रही है कि राहुल को विदेश में भारत की समस्याओं की चर्चा नहीं करना चाहिए पर राहुल एक तरह से मोदी की नकल ही कर रहे हैं। मोदी के विदेश दौरे के बाद उनका कद काफी बढ़ा था। लगता है कि राहुल गांधी भी इसी राह पर चल रहे हैं। राहुल को इस बात का अच्छे से पता है कि भाजपा की नीतियों को लेक देश की जनता में भारी रोष है। अब वह पहली जैसी बात नहीं है। जनता में गुस्सा और मायूसी है। यही वजह है कि राहुल जनता से जुड़ी बातों और परेशानियों को अपने भाषणों में उठा रहे हैं। मसलन भारत में नौकरियों के अवसर पैदा कर पाने में सरकार का नाकाम रहना। इस दौरान उन्होंने भारत समेत पूरी दुनिया में असहिष्णुता बढ़ने पर दुख जाहिर किया। हर दिन रोजगार बाजार में 30,000 नए युवा शामिल हो रहे हैं और इसके बावजूद सरकार प्रतिदिन केवल 500 ही नौकरियां पैदा कर पा रही है। इसमें बड़ी संख्या में पहले से ही बेरोजगार युवा शामिल हैं। प्रिसंटन यूनिवर्सिटी में छात्रों के साथ बातचीत में राहुल ने स्वीकार किया कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को भारत में सत्ता इसलिए मिली क्योंकि लोग कांग्रेस पार्टी से बेरोजगारी के मुद्दे पर नाराज थे। उन्होंने कहा कि रोजगार का पूर्ण मतलब राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में लोगों को सशक्त करना और शामिल करना है। राहुल गांधी जानते हैं कि आज देश की जनता परेशान है, हैरान है। उन्होंने सोच-समझ कर ऐसे मुद्दे उठाए हैं जिनका सीधा संबंध जनता और देश की उन्नति से जुड़ा है। साथ ही मेक इन इंडिया नीति की विफलता और राजनीतिक प्रणाली का केंद्रीकरण के मसले पर राहुल ने बेबाकी से अपनी राय रखी। बेशक ऐसा करने से राहुल का मंतव्य जनता के मन में भाजपा के खिलाफ फिलवक्त माहौल बनाना है जिसे वे कैश करना चाहते हैं। आज देश की जनता के सामने सबसे बड़ी समस्या भाजपा के विकल्प की है। राहुल कांग्रेस को भाजपा का विकल्प बनाना चाहते हैं। मीडिया में खबरों के अनुसार वह कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष पद वह महीने संभाल सकते हैं। राहुल को बाखूबी मालूम है कि यूपीए के 10 साल के शासन में किन-किन बातों और नीतियों को लेकर जनता ने भाजपा को पहली पसंद बनाया था। विदेश में राहुल का कार्यक्रम दरअसल कांग्रेस पार्टी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। पार्टी राहुल को इसी बहाने वैश्विक समझ रखने वाले परिपक्व नेता के तौर पर स्थापित करना चाहती है। राहुल अगर अध्यक्ष बनते हैं तो महत्वपूर्ण यह होगा कि वह अपनी युवा टीम के साथ पुराने अनुभवी कांग्रेसी नेताओं को भी साथ रखें। अगर राहुल मार खा रहे हैं तो एक बहुत बड़ी वजह है उनके इर्द-गिर्द अनुभवी, परिपक्व नेताओं की कमी।

Friday 22 September 2017

400 साल पहले हुई थी रामलीलाओं की शुरुआत

देशभर में और राजधानी दिल्ली में रामलीलाओं की परंपरा बहुत पुरानी है। काशी की रामलीला की शुरुआत के मूल में देशभक्ति की भावना है। संवत 1600 में संत तुलसीदास ने मुगलों के खिलाफ एकजुटता के लिए रामलीला को माध्यम बनाया तो 19वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजों के खिलाफ लामबंदी के लिए छह से अधिक रामलीलाओं का विकास हुआ। इस बार दिल्ली में 500 से ज्यादा छोटी-बड़ी रामलीलाओं का आयोजन हो रहा है। राजधानी के ऐतिहासिक दशहरा पर्व पर राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री सहित विदेशी राजदूत लीला का अवलोकन करने आते हैं। दिल्ली शहर में चार रामलीलाएं ऐसी हैं जो 400 साल से अधिक पुरानी हैं। इनके यहां लीला श्रीराम के वनगमन से होती है। सबसे पुरानी रामलीला श्री चित्रकूट रामलीला समिति की है जिसका इस बार 474वां वर्ष है। इसके अतिरिक्त मौनी बाबा की रामलीला, लाट भैरव और अस्सी की रामलीला का इतिहास 400 वर्षों से अधिक पुराना है। संत तुलसीदास के मित्र मेघा भगत ने संवत 1600 में श्री चित्रकूट रामलीला समिति की स्थापना की थी। लगभग उसी समय संत तुलसीदास ने अस्सी क्षेत्र में रामलीला की शुरुआत की। लीलाएं शुरू करने के पीछे तुलसीदास का उद्देश्य जनमानस में यह भाव भरना था कि जिस प्रकार राम के युग में रावण का अंत हुआ, उसी प्रकार अत्याचारी मुगल शासन का भी अंत होगा। दिल्ली को गंगा-जमुनी तहजीब का संगम भी कहा जाता है, जो यहां बोली, खानपान और पहनावे में भी दिखता है, यह यहीं नहीं रुकता। एक तरफ जहां जाति-पाति और धर्म, मजहब को लेकर लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, वहीं दिल्ली की रामलीलाओं में हिन्दू-मुस्लिम कलाकार भाई-भाई बनकर बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। यह अपने आपमें एक मिसाल है। लालकिले पर होने वाली नव श्री धार्मिक लीला कमेटी में कुंभकरण का किरदार निभाने वाले मुजीबुर्रहमान का कहना है कि कलाकार का कोई धर्म नहीं होता। वह जब जिस व्यक्ति या पात्र का अभिनय करता है तब उसी के अनुसार ढल जाता है। वह एक पेशेवर कलाकार हैं और वर्तमान में गुड़गांव स्थित किंगडम ऑफ ड्रीम थियेटर में काम करते हैं। उनका कहना है कि यह सिर्फ उन्हीं की नहीं बल्कि उनकी मां की इच्छा थी कि वे प्रभु श्रीराम का किरदार निभाएं। इस किरदार को समझने के लिए वह मंदिर भी जाते हैं। लीला के दौरान सारे नियमों का पालन करते हैं। जन-जन के हृदय में राम जितनी सहजता से समाए हैं, उनकी लीला का स्वरूप उतना ही विविध है। राजधानी दिल्ली की संस्कृति जिन पारंपरिक मूल्यों से आज इतनी घनी बनी है उनमें रामलीला आयोजन सबसे अव्वल है। तुलसी कृत राम चरित मानस से निकली हर अनंता आगामी दिनों में मंच पर साकार और चरितार्थ होती दिखाई देगी। मंचन का शुभारंभ हो चुका है। लालकिले की प्रसिद्ध लव कुश रामलीला में मंचन के लिए बॉलीवुड कलाकार का शामिल होना खास है। इस बार यहां स्पेशल उच्च तकनीक का भी इस्तेमाल होगा। बॉलीवुड कलाकारों के अलावा स्पेशल स्टंट, मंच पर ही नदी व झरनें के अलावा लाइव दृश्य दिखाए जाएंगे। नव श्री धार्मिक रामलीला में सेट डिजाइन के साथ इस बार किरदारों की वेशभूषा भी खास होगी। इस बीच दिल्ली पुलिस के आला अफसर भी सुरक्षा प्रबंधों को लेकर पूरी चौकसी बरत रहे हैं। बड़े बजट की ज्यादा भीड़ वाली रामलीलाएं आतंकियों के निशाने पर रहती हैं। उम्मीद की जाती है कि इस वर्ष रामलीलाओं में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ेगी और जो अपार भीड़ लीला देखने आएगी वह निर्विघ्न इसका आनंद ले सकेगी।

-अनिल नरेन्द्र

योगी आदित्यनाथ सरकार के पहले छह माह

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में छह महीने का कार्यकाल पूरा करने पर योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि उनकी सरकार ने बीते 15 वर्ष से चल रही परिवारवाद व जातिवाद की राजनीति को खत्म कर युवा व किसान केंद्रित राजनीति की शुरुआत की है। उन्होंने कहा कि इन छह महीने में जहां प्रदेश में उद्योगों में निवेश का फ्रैंडली माहौल बनाया है वहीं जंगलराज के खात्मे के साथ ही कानून का राज स्थापित हुआ है। बीते छह महीने में प्रदेश में एक भी दंगा न होना भी एक रिकार्ड है। उन्होंने कहा कि उनके शपथ लेने से पहले प्रदेश में प्रतिमाह औसतन दो दंगे होते थे। हालात यह थे कि 2012-2017 के बीच जहां दो बड़े दंगे हुए, वहीं हर सप्ताह दो दंगों का रिकार्ड रहा। कई बार तो दंगाइयों को मुख्यमंत्री आवास पर सम्मानित तक किया गया लेकिन उनकी सरकार ने छह माह के भीतर जहां कानून व्यवस्था नियमित की वहीं आम जनता में सुरक्षा की भावना जगी। छह महीने का कार्यकाल पूरा होने पर मुख्यमंत्री ने पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह की मौजूदगी में पुलिस की जमकर पीठ ठोंकी। उन्होंने कहा कि छह माह में दुर्दांत अपराधियों के साथ हुई 431 मुठभेड़ों में 17 खतरनाक अपराधी ढेर हुए और 1106 गिरफ्तार हुए, जिनमें से 668 पर इनाम घोषित था। इन मुठभेड़ों में 88 जवान घायल हुए, जबकि एक सब-इंस्पेक्टर जयप्रकाश सिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। वहीं अपने आपराधिक साम्राज्य का विस्तार कर अकूत सम्पत्ति अर्जित करने वाले 69 अपराधी गैंगस्टर एक्ट के तहत अपनी सम्पत्ति जब्त करवा बैठे। वास्तव में दुख से कहना पड़ता है कि तमाम दावों के बावजूद विकास के मद में सिर्फ तीन फीसदी राशि खर्च की गई और राजकीय घाटा 3.5 फीसदी हो गया। यही नहीं, सूबे के सार्वजनिक उपक्रमों का घाटा बढ़कर 91,000 करोड़ रुपए हो गया। किसानों की समस्याएं और रोजगार के मुद्दे पर काफी कुछ कहने के साथ ही कहा गया कि योगी सरकार को विरासत में अराजकता, गुंडागर्दी, अपराध व भ्रष्टाचार मय विषाक्त वातावरण मिला। वास्तव में उत्तर प्रदेश आर्थिक विकास और मानव विकास सूचकांक के मामले में आज भी फिसड्डी है। 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश को बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के साथ बीमारू राज्य की संज्ञा दी गई थी, यही संज्ञा उसके लिए स्थायी रूप से विशेषण बन गई। कुल मिलाकर अब भी विकास के प्रश्नों के उत्तर प्रदेश उत्तर तलाश रहा है। योगी आदित्यनाथ ने 19 मार्च को सत्ता संभालने के साथ मितव्यता और पारदर्शिता को प्राथमिकता दी, जिसका असर भी नजर आने लगा है पर योगी जी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। शुरुआत तो अच्छी है, देखें, आगे क्या होता है?

Thursday 21 September 2017

भारतीय जेलों में अव्यवस्था और अमानवीय हालात

भारतीय जेलों में अव्यवस्था और बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार पर चिंता जताते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर जेलों में सुधार पर ध्यान दिया है और इस सिलसिले में 11 सूत्री दिशा-निर्देश भी जारी किए। इसके साथ ही माननीय अदालत ने जेलों के साथ-साथ बाल गृहों में  अस्वाभाविक मौतों के शिकार कैदियों के परिजनों को उचित मुआवजा देने का भी निर्देश दिया। यह सवाल इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस सुधारों को लेकर जो सात सूत्री दिशा निर्देश जारी किए थे उनकी कुल मिलाकर अनदेखी ही हुई है। अदालत ने कहा कि सभी हाई कोर्ट 2012 से 2015 के बीच जेलें में हुई अस्वाभाविक मौतों का संज्ञान लेते हुए खुद जनहित याचिका दर्ज करें और उसके लिए मुआवजे का भी प्रबंध करें। कैदियों खासकर पहली बार अपराध करने वालों के परामर्श के लिए काउंसलर और सहायक कार्मिक नियुक्त किए जाएं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को भी अदालत ने निर्देश दिए हैं कि हिरासत या संरक्षण में रखे गए बच्चों की हुई अस्वाभाविक मौतों की सूची तैयार करे और उनके लिए संबंधित राज्य सरकारों से विचार-विमर्श करे। जेल में व्याप्त अमानवीय स्थितियों में सुधार के उपाय किए जाएं। पहले भी अनेक मौकों पर जेल सुधार की मांग उठती रही है मगर इस दिशा में उल्लेखनीय कदम अब तक नहीं उठाए जा सके हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्देश का कहां तक पालन हो पाएगा, देखने की बात है। सभी जानते हैं कि जेलों में उनकी क्षमता से कहीं अधिक कैदी रखे गए हैं। इसके चलते जेलों में व्यवस्था बनाए रखना आसान काम नहीं है। आए दिन कैदियों में विभिन्न गुटों का खूनी संघर्ष होता रहता है। दिल्ली के सबसे सुरक्षित कहे जाने वाले तिहाड़ जेल में दो दिन पहले ही कैदियों के दो गुटों में जमकर खूनी हिंसा हुई। तैनात पुलिस बल के अलावा अतिरिक्त पुलिस बल को बुलाना पड़ा। हालात काबू करने के लिए जेल अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों को काफी मशक्कत करनी पड़ी। लेकिन गुस्साए उग्र कैदियों ने उन पर हमला बोल दिया। इस दौरान कई कैदी भी घायल हुए। साथ ही जेल के 13 सुरक्षकर्मी घायल हो गए। जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों की वजह से कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन तो होता ही है साथ-साथ उनके स्वास्थ्य, भोजन, चिकित्सा आदि पर समुचित ध्यान न दिए जाने या फिर उनके साथ अमानवीय व्यवहार के चलते अकसर कई अस्वाभाविक मौत के शिकार हो जाते हैं। इन मौतों को आमतौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। जेलों में कैदियों के बढ़ते बोझ का एक बड़ा कारण मुकदमों का लंबे समय तक लटकना भी है। जेलों में बंद लगभग आधे से अधिक कैदी ऐसे हैं जिन पर बहुत मामूली अपराध के आरोप हैं और सजा से ज्यादा समय वह जेलों में बतौर अंडरट्रायल ही बिता देते हैं। बहुत सारे विचाराधीन कैदी  फैसले के इंतजार में सलाखों के पीछे रहने को मजबूर हैं। कई ऐसे होते हैं जिन्हें मामूली जुर्माना लगाकर बरी किया जा सकता है पर वे विचाराधीन कैदी के रूप में कारावास की सजा भुगतने को मजबूर हैं। भारतीय जेलों की दुर्दशा का हाल यह है कि जब किसी का विदेश से प्रत्यर्पण करने की कोशिश की जाती है तो उनके वकील इस दलील की आड़ अवश्य लेते हैं कि भारतीय जेलों की व्यवस्था तो घोर अमानवीय है। क्या यह किसी से छिपा है कि केरल के मछुआरों की हत्या के आरोपी इटली के नौसैनिकों से लेकर विजय माल्या तक के वकील ऐसी ही दलीलें दे चुके हैं। सुप्रीप कोर्ट का यह कहना बिल्कुल सही है कि जेलों में जरूरत से ज्यादा कैदी तो हैं पर वहां पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। अच्छा होगा कि सुप्रीम कोर्ट यह भी महसूस करे कि न्यायिक सुधारों की ओर बढ़ने और अदालतों को मुकदमों के बोझ से बुरी तरह दबी न्यायिक व्यवस्था में सुधार करने का वक्त आ गया है। अगर मुकदमों का निपटारा शीघ्र हो तो अंडर ट्रायलों की संख्या अपने आप कम हो जाएगी और जब इनकी संख्या कम होगी तो जेलों में कैदियों की संख्या घट जाएगी।

öअनिल नरेन्द्र

रोहिंग्या देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा हैं

देश में अवैध तरीके से रह रहे बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों के संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और आतंकी संगठन आईएसआईएस से हैं। यह देश में हवाला और फर्जी दस्तावेजों का कारोबार चला रहे हैं और भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा हैं। यह बात केंद्र सरकार ने रोहिंग्या पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में दायर 16 पेज के हलफनामे में कही है। केंद्र ने यह भी स्पष्ट किया कि किस शरणार्थी को देश में रखा जाए और किसे नहीं, यह सरकार का पॉलिसी मैटर है। इस अधिकार में कोई दखल नहीं दे सकता। कई आतंकी पृष्ठभूमि में हैं। रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ सरकार के पास और कई जानकारियां हैं जो बहुत अहम हैं लेकिन फिलहाल उन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। अगर अदालत को जरूरत होगी तो सरकार सीलबंद लिफाफे में यह जानकारी दे सकती है। सरकार ने कहा है कि कुछ रोहिंग्या मुसलमान अवैध और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं। हवाला के जरिए अवैध रूप से फंड इकट्ठा करते हैं। मानव तस्करी भी कर रहे हैं।  फर्जी पेन कार्ड और आधार कार्ड भी बनवा लिए हैं। उनके यहां रहने से भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार भी प्रभावित होंगे क्योंकि देश के संसाधनों का इस्तेमाल अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या मुसलमान भी करेंगे। ताजा संकट इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि रोहिंग्या मुसलमानों के अराकन रोहिंग्या समवेशन आर्मी (एआरएएसए) के लड़ाकों ने 25 अगस्त 2017 को सेना और बार्डर पुलिस की 25 चौकियों पर हमला बोल दिया और एक दर्जन सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर दी। इस पर सेना ने रोहिंग्या सफाई अभियान शुरू कर दिया है। अब तक करीब चार लाख लोग म्यांमार से भागकर पड़ोसी बांग्लादेश पहुंच चुके हैं। ऊपर से देखने में यह धर्म के आधार पर प्रताड़ित किए जाने का मामला लगता है लेकिन हकीकत यह है कि असली लड़ाई प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे को लेकर है। बांग्लादेश और म्यांमार की सीमा पर बसे रोहिंग्या दशकों से रोजगार की तलाश में सीमा पार आते-जाते रहे हैं, लेकिन पिछले 50 साल के सैनिक शासन में म्यांमार में उन्हें धीरे-धीरे नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित किया जा चुका है। उन्हें वहां से भागकर उनकी जमीनों को सरकार और जापान, कोरिया व चीन की राष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किया जा रहा है, ऐसा कहना रोहिंग्या मुसलमानों का है। रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में भारत की खुफिया एजेंसियें के पास कई सनसनीखेज बातें हैं। सूत्रों के मुताबिक आईएसआई 1971 में बांग्लादेश के गठन के बाद से ही रोहिंग्या मुस्लिमों के सांप्रदायिक इस्तेमाल की कोशिश में लगी है। आईएसआई बांग्लादेश और उत्तर-पश्चिम म्यांमार के रोहिंग्या बहुल रखाइन इलाके के कट्टरपंथियों को मिलाकर एक अलग मुस्लिम क्षेत्र बनाने का ब्ल्यू प्रिंट तैयार कर चुकी है। इस तबके का भारत, बांग्लादेश और म्यांमार के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए आईएसआई बेकरार है। दो दिन पहले रोहिंग्या मुसलमानों को ट्रेनिंग देकर तैयार करने की साजिश के लिए भारत आए अल-कायदा आतंकी को गिरफ्तार किया गया है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बांग्लादेशी मूल के इस ब्रिटिश नागरिक को रविवार शाम को दिल्ली के शकरपुर बस स्टेंड से पकड़ा। पहले उसने अपना नाम ग्रॉमन हक बताया लेकिन असलियत में वह समीगन रहमान उर्फ राजू भाई निकला। रोहिंग्या मुस्लिम मूल रूप से बांग्लादेशी हैं। इन्हें बांग्लादेश ही जाना चाहिए। बांग्लादेश में इनके लिए कई शिविर तैयार किए हैं। खबर है कि तुर्की ने बांग्लादेश को रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए धन देने का वायदा भी किया है। भारत पहले से ही लाखों बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ से परेशान है। भारत  ने सारी दुनिया के शरणार्थियों का ठेका नहीं ले रखा। हमने यूरोप का हाल देखा है। वहां सीरिया और इराक के लाखों मुसलमानों ने शरण ली है। इनमें अलकायदा ने और आईएसआईएस ने अपने हत्यारे घुसेड़ दिए हैं। आए दिन यूरोप के किसी न किसी शहर में बम विस्फोट, सुसाइड ब्लास्ट के केस हो रहे हैं। हम भारत सरकार के स्टैंड से सहमत हैं। देश की एकता व अखंडता की खातिर हम कोई नया जोखिम नहीं ले सकते।

Wednesday 20 September 2017

बिल्डर खरीददारों से दगाबाजी नहीं कर सकते

यह बहुत खुशी की बात है कि सुप्रीम कोर्ट इन डिफाल्टर बिल्डरों के खिलाफ सख्त कदम उठा रहा है। कुछ बिल्डरों ने अति मचा रखी है। जनता ने अपनी गाढ़ी कमाई से घर का सपना पूरा करने के लिए इन्हें विश्वास में पैसा दे दिया और बदले में फ्लैट की जगह दर-दर की ठोकरें खाने पर खाली हाथ मजबूर हैं। यह बिल्डर पैसा भी खा गए और फ्लैट भी अभी तक वर्षों बीतने के बाद भी नहीं दिए। सुप्रीम कोर्ट ने कई बिल्डरों पर सख्त कार्रवाई के आदेश दिए हैं। शुक्रवार को रीयल एस्टेट फर्म यूनिटेक के प्रवर्तकों संजय चन्द्रा और अजय चन्द्रा को अंतरिम जमानत देने से इंकार कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अपना धन वापस मांगने वाले खरीददारों के आंकड़े उपलब्ध होने के बाद ही उनकी याचिका पर विचार किया जाएगा। जेल में बंद चन्द्रा बंधुओं ने दिल्ली उच्च न्यायालय में 2015 में दर्ज आपराधिक मामले में उनकी याचिका खारिज होने के बाद शीर्ष अदालत से अंतरिम जमानत का आग्रह किया है। यह मामला गुरुग्राम में स्थित यूनिटेक परियोजनाओंöवाइल्ड फ्लावर कंट्री और अथियां परियोजना के 158 खरीददारों ने दायर किया है। न्यायाधीश पवन सी. अग्रवाल ने कहा कि उन्हें अभी तक कंपनी की 55 परियोजनाओं का पता चला है। नौ परियोजनाओं में करीब 4000 घर खरीददारों के कंपनी को लगभग 1800 करोड़ रुपए का भुगतान किए जाने का अनुमान है। उधर जेपी ग्रुप भी बुरी रह फंस गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने फ्लैट देने में देरी करने पर जेपी एसोसिएट्स को आदेश दिया कि वह 10 खरीददारों को 50 लाख रुपए का अंतरिम मुआवजा दे। कोर्ट ने कहा कि बिल्डर खरीददारों से दगाबाजी नहीं कर सकते। न्यायालय ने यह भी कहा कि घर खरीददारों से सामान्य निवेशकों जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्होंने अपने सिर पर छत के लिए अपनी गाढ़ी कमाई खर्च की है। पैसे लेकर समय पर फ्लैट न देने के आरोप में जेपी ग्रुप के चेयरमैन मनोज गौड़ समेत 12 अधिकारियों के खिलाफ केस भी दर्ज किया गया है। दनकौर कोतवाली में दिल्ली के शाहदरा निवासी एक खरीददार और उनके साथियों की ओर से दर्ज की गई शिकायत पर शुक्रवार को यह कार्रवाई की गई। गुप्ता का आरोप है कि जेपी इंफ्राटेक लिमिटेड तथा जयप्रकाश एसोसिएट्स के अधिकारियों ने उन्हें झांसे में रखकर फ्लैट बुक कराए। खरीददारों का कहना है कि कंपनी ने 33 लाख रुपए फ्लैट बुक करते समय लिए और इतनी ही राशि आवंटन पर देना तय हुआ। पहली किस्त 2015 में और उसके बाद दूसरी किस्त 2017 में  ली गई। इसके बाद भी फ्लैट नहीं मिला तो कंपनी के अधिकारियों से शिकायत की गई। उन्होंने खरीददारों से तीन माह का समय मांगा पर इसके बाद भी कब्जा नहीं दिया गया। आम्रपाली के प्रोजेक्टों में फ्लैट खरीदने वाले सैकड़ों लोग शनिवार सुबह सड़कों पर उतर आए। देखें कि क्या अदालत की कार्रवाई का असर होता है क्या?

-अनिल नरेन्द्र

लाहौर उपचुनाव नतीजों का दूरगामी परिणाम होगा

पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान में कौमी असेम्बली के हल्के (निर्वाचन क्षेत्र) 120 लाहौर उपचुनाव का बुखार चढ़ा हुआ था। इसी चुनाव क्षेत्र से नवाज शरीफ तीन बार प्रधानमंत्री के सिंहासन तक पहुंचे थे। इस बार उनकी पत्नी बेगम कुलसुम नवाज चुनाव लड़ रही थीं। रविवार को इस उपचुनाव को लंदन में कैंसर का इलाज करा रही नवाज शरीफ की बेगम कुलसुम नवाज ने यह सीट जीत ली है। जुलाई में नवाज शरीफ को पीएम पद के लिए अयोग्य ठहराए जाने के बाद कुलसुम ने उनकी सीट पर चुनाव लड़ा था। नवाज शरीफ के भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसने के बाद यह उपचुनाव उनकी परीक्षा भी थी और प्रतिष्ठा भी। इस बार उनकी बेगम कुलसुम नवाज ने पाला मारा और तहरीक--इंसाफ की उम्मीदवार यास्मिन राशिद को लगभग 15,000 वोटों से हरा दिया। मगर इस चुनाव के नतीजों से भी ज्यादा अहम बात जिसकी तरफ मीडिया का ध्यान कम गया वो यह है कि मुस्लिम लीग नवाज और तहरीक--इंसाफ के बाद तीसरे न्म्बर पर एक ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार ने पांच हजार वोट लिए जिसे लश्कर--तैयबा उर्फ जमात-उद-दावा के लीडर हाफिज सईद का समर्थन हासिल है। जबकि आसिफ अली जरदारी की पार्टी को सिर्फ ढाई हजार वोट मिले। शेख मोहम्मद याकूब का चुनाव प्रचार जमात-उद-दावा के पेट से डेढ़ महीने पहले निकली मिल्ली मुस्लिम लीग के वर्कर्स ने किया। यूं समझिए कि जो ताल्लुक भाजपा का आरएसएस से है वही ताल्लुक मिल्ली मुस्लिम लीग का हाफिज सईद की जमात-उद-दावा से है। मगर चूंकि मिल्ली मुस्लिम लीग अभी चुनाव आयोग में नामांकित नहीं, इसलिए उसके उम्मीदवार ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा। मिल्ली मुस्लिम लीग ने चुनाव प्रचार में अच्छा-खासा पैसा खर्च किया। मुंबई आतंकी हमले के मास्टर माइंड हाफिज सईद की नई पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग ने घोषणा की है कि पाकिस्तान में 2018 के आम चुनावों में हर सीट पर वह अपने प्रत्याशी उतारेगी। लाहौर उपचुनाव में हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा समर्थित प्रत्याशी शेख याकूब ने तीसरे नम्बर पर रहने के बाद यह बात कही। शेख याकूब की रैलियों में हाफिज सईद के पोस्टर भी नजर आए, हालांकि चुनाव आयोग ने सख्ती से मना किया है कि जिन लोगों पर चरमपंथ का आरोप है उनका नाम चुनाव प्रचार में इस्तेमाल नहीं हो सकता। खुद हाफिज सईद जनवरी से अपने घर में कैद है। मिल्ली मुस्लिम लीग का अपनी पैदाइश के चन्द हफ्ते बाद ही चुनाव में हिस्सा लेना और तीसरे नम्बर पर आना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब से अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और बीजिंग में ब्रिक्स नेताओं की बैठक की तरफ से पाकिस्तान को कहा गया है कि वह अपने यहां ऐसे संगठनों को रोके जिन पर इलाके में दहशतगर्दी फैलाने का आरोप है। तब से पाकिस्तान सरकार में दो तरह की बहस चल रही है। सिविलियन हुकूमत चाहती है कि विदेश नीति में बदलाव हो क्योंकि अब सिर्फ यह कहने से दुनिया संतुष्ट नहीं होगी कि पाकिस्तान का अतिवादी संगठनों से कोई लेना-देना नहीं। दूसरी तरफ यह दलील दी जाती है कि अगर इन चरमपंथी संगठनों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाए तो हम दुनिया से कह सकते हैं कि हमने इन लोगों को एक नया रास्ता सुझाया है जिसमें दहशतगर्दी की कोई गुंजाइश नहीं है। पर मुश्किल यह है कि अगर कल के चरमपंथी आज के लोकतांत्रिक सियासत का हिस्सा अपने उसी नजरिये के साथ बनाते हैं जिससे बाकी दुनिया चिंतित है तो ऐसी स्थिति में उन्हें मुख्य धारा में लाने का लाभ की जगह ज्यादा नुकसान न हो जाए। यह संभव है कि अगर हाफिज सईद कौमी सियासत का हिस्सा बनता है तो ऐसा नहीं होगा कि हाफिज सईद अपना अतिवादी नजरिया छोड़ देगा। चूंकि नवाज की पत्नी कुलसुम नवाज को गले का कैंसर हुआ है और उनका इलाज चल रहा है इसलिए चुनाव प्रचार की सारी जिम्मेदारी मरियम नवाज को दी गई थी। मरियम नवाज बहुत तेज-तर्रार नेता हैं और पंजाब में उनकी लोकप्रियता भी है। उनकी तुलना भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से की जाती है। इसलिए कुलसुम की गैर-मौजूदगी में भी उनके चुनाव प्रचार में कोई फर्क नहीं पड़ा। जीत असल में हुई तो मरियम शरीफ और हाफिज सईद की हुई।

Tuesday 19 September 2017

पिछले छह महीने में ब्रिटेन में पांचवां आतंकी हमला

यूरोप में आतंकी हमले रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। ताजा हमला ब्रिटेन की राजधानी लंदन में हुआ है। इस बार आतंकियों ने भूमिगत ट्रेन (ट्यूब ट्रेन) को निशाना बनाया। दक्षिण लंदन स्थित पार्संस ग्रीन स्टेशन पर शुक्रवार सुबह 8.20 बजे ट्यूब ट्रेन (हमारी मेट्रो जैसी) के एक कोच में रखी बाल्टी (कंटेनर) में हुए विस्फोट से 22 लोग घायल हो गए। इस साल ब्रिटेन में यह पांचवां आतंकी हमला है। कुछ समय पहले लंदन की संसद के बाहर बम धमाका हुआ था। सुखद संयोग है कि इस आतंकी हमले में जानमाल की क्षति नहीं हुई, लेकिन दशहत के सौदागरों ने जो वक्त पार्संस ट्यूब स्टेशन पर विस्फोट करने का चुना वह काफी घातक हो सकता था। वह समय बच्चों के स्कूल जाने व बाबुओं के दफ्तर जाने का था। जाहिर है कि विस्फोट प्लान के मुताबिक नहीं हो सका। प्लान तो पूरी ट्रेन को उड़ाने का था पर खुशकिस्मती रही की पूरा धमाका नहीं हो सका। कुछ दिन पहले ही बेल्जियम में एक व्यक्ति ने सैन्य बलों पर चाकू से हमला किया था। इस घटना में पुलिस ने आतंकी को मारा गिराया था। बताया जा रहा है कि वार करते हुए युवक बार-बार अल्लाह-हू-अकबर चिल्ला रहा था। स्पेन के बार्सिलोना शहर में हमला करने वाले आतंकियों की योजना कहीं ज्यादा और खतरनाक बड़े हमले की थी। स्पेन के आतंकी सेल ने बताया कि बार्सिलोना के मशहूर चर्च द सग्रडा फैमिलिया कैथेड्रल को भी विस्फोट से उड़ाना चाहते थे आतंकी। वह विस्फोटों से लदे तीन वाहनों से हमला करना चाहते थे। उधर रूस के उत्तरी शहर सरगुत में एक व्यक्ति ने चाकू से हमला कर सड़क पर घूम रहे आठ लोगों को घायल कर दिया। आतंकी संगठन आईएसआईएस ने इस हमले की जिम्मेदारी ली। हमलावर की पहचान स्थानीय युवक बॉबीवाल अब्दुर खामनेव (23 साल) के रूप में हुई। उसने सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर लोगों को चाकू मारा। लंदन की वारदात का एक पहलू यह है कि वहां एक बार फिर यातायात को निशाना बनाया गया है। पिछले छह महीनों में ब्रिटेन में यह पांचवीं आतंकी वारदात है, जो बताती है कि आतंकियों ने वहां अपना मजबूत नेटवर्क बना लिया है। दरअसल आईएसआईएस के खिलाफ वैश्विक मोर्चेबंदी से दहशतगर्द जमातों के स्लीपर सेल्स में भी हताशा बढ़ रही है और वह किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की बजाय अब अपने लड़ाकों को लोन एक्टर के तौर पर कदम उठाने को प्रेरित कर रहे हैं। 27 मार्च की वेस्ट मिनिस्टर की घटना और जून के हमले को इसी रूप में देखा गया था। मार्च की घटना में हमलावर ने भीड़ पर गाड़ी चढ़ा दी थी, जिसमें पांच लोगों की मौत हो गई थी और 20 जख्मी हुए थे। चाकुओं से हमले की भी वहां कई घटनाएं हो चुकी हैं। विकसित मुल्कों से भी रह-रहकर आने वाली आतंकी हमलों की खबरें साबित करती हैं कि टेरर के खिलाफ लम्हेभर की ढिलाई भारी पड़ सकती है। इसका मुकाबला सभी को मिलकर करना होगा।

-अनिल नरेन्द्र

क्या सांसद-विधायक अपनी सम्पत्ति बेतहाशा बढ़ा सकते हैं?

दो चुनावों के बीच देश के सांसदों और विधायकों की सम्पत्ति में बेतहाशा वृद्धि पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सवाल उठाया कि क्या जनप्रतिनिधि होते हुए सांसद और विधायक कारोबार कर सकते हैं? न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अगर सांसद और विधायक यह बता भी देते हैं कि उनकी सम्पत्तियों में बेतहाशा वृद्धि उनके अपने कारोबार के कारण हुई है, तो भी सवाल उठता है कि क्या जनप्रतिनिधि होने के नाते इसके साथ-साथ अपना कारोबार कर सकते हैं? पीठ ने यह सवाल लोक प्रहरी नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई के दौरान उठाया। याचिका में गुहार लगाई गई है कि चुनाव में पर्चा दाखिल करते वक्त उम्मीदवारों को न केवल खुद की बल्कि परिवार के सभी सदस्यों की आमदनी का स्रोत बताना जरूरी किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने बेहिसाब सम्पत्ति जुटा रहे राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई को लेकर केंद्र सरकार और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) से कई तीखे सवाल किए। इस दौरान शीर्ष अदालत ने राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यावसायियों व अपराधियों की साठगांठ पर वोहरा कमेटी की रिपोर्ट को लागू न किए जाने का भी मामला उठाया। पीठ ने मंगलवार को पूछा कि वोहरा कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ, जिसमें राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यावसायियों और अपराधियों के बीच साठगांठ पर तीखी टिप्पणी की गई थी। उसके बाद क्या हुआ? क्या अब वह समय नहीं आ गया है जब हमें उस पर अमल करना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने नेताओं की बेहिसाब सम्पत्ति की जांच के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की भी जबरदस्त वकालत की है। हालांकि केंद्र सरकार ने इसका कड़ा विरोध किया है। याचिकाकर्ता लोक प्रहरी ने आयकर विभाग को 26 लोकसभा सांसदों, 11 राज्यसभा सांसदों और 257 विधायकों की सूची भेजी थी और उनकी सम्पत्ति की जांच करने का अनुरोध किया था। याचिकाकर्ता का आरोप था कि इन लोगों द्वारा चुनाव के समय दाखिल किए गए हलफनामे में दी गई सम्पत्ति पिछले चुनाव के समय दिए गए हलफनामे की सम्पत्ति से 500 गुणा से ज्यादा बढ़ गई है। इसके बाद सोमवार को दाखिल किए गए हलफनामे में सीबीडीटी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि देशभर में सात लोकसभा सांसदों और 98 विधायकों की सम्पत्तियों में बहुत तेजी से इजाफा हुआ है और उनमें अनियमितताएं पाई गई हैं। एक सांसद की सम्पत्ति में 2100 प्रतिशत तक बढ़ी सम्पत्ति हलफनामे में दर्ज है। केरल के नेताओं की सम्पत्ति 1700 प्रतिशत तक बढ़ी है। असम के ज्यादातर नेताओं की सम्पत्ति 500 प्रतिशत तक बढ़ी। मालूम हो कि आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में ही तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता को चार साल की सजा के साथ 100 करोड़ रुपए के जुर्माने की सजा इसी प्रकृति के मामले में सुनाई गई थी। इस सजा के डर से राजनीति में शुचिता की दृष्टि से पवित्रता की शुरुआत के लिए राजनेताओं को बाध्य होने की उम्मीद की गई थी, क्यों अब तक यह धारणा बनी हुई थी कि भ्रष्टाचार से अर्जित सम्पत्ति से राजनीति चलती रहेगी और इसी धन से निकलने के उपाय भी तलाशे जाते रहेंगे। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने यदि 10 जुलाई 2013 को दिए ऐतिहासिक फैसले में यह व्यवस्था न दी होती कि दागी व्यक्ति जनप्रतिनिधि नहीं हो सकता, तो शायद जयललिता सजा के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन बनी रहतीं। न्यायालय के इस फैसले के मुताबिक यदि किसी जनप्रतिनिधि को आपराधिक मामले में दोषी करार देते हुए दो साल से अधिक की सजा सुनाई गई है तो वह व्यक्ति सांसद या विधायक बना नहीं रह सकता। वह न तो मुख्यमंत्री बना रह सकता है और आने वाले 10 सालों तक चुनाव भी नहीं लड़ सकता। भ्रष्टाचार से मुक्ति के उपाय की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का यह अहम फैसला है। यदि राजनीति और प्रशासन से जुड़े भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति इसी तरह से बतौर जुर्माना वसूलने की शुरुआत देश में हो जाती है तो जनता को शायद भ्रष्टाचार-मुक्त शासन-प्रशासन की खुली हवा में सांसें लेने का अवसर उपलब्ध हो जाए।

Sunday 17 September 2017

दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा दौलतमंद गैंगस्टर दाऊद इब्राहिम

मुंबई हमले का मास्टर माइंड और कुख्यात अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम को बड़ा झटका देते हुए ब्रिटेन ने उसकी हजारों करोड़ की सम्पत्ति जब्त कर ली है। ब्रिटेन ने भारत सरकार के अनुरोध पर कार्रवाई करते हुए मुंबई को 1993 में दहलाने वाला जो इस समय इस दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा दौलतमंद गैंगस्टर और सबसे बड़ा मोस्ट वांटेड अपराधी है, यह ऐसा कदम उठाया है जो भारत की कूटनीतिक जीत तो है ही और इसका प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ेगा। फोर्ब्स मैगजीन ने 2015 में तीन महाद्वीपों के 16 देशों में उसकी 43 हजार करोड़ रुपए की सम्पत्ति का खुलासा किया था। कोलंबिया का ड्रग्स तस्कर और गैंगस्टर पाब्लो एस्कोबार भी दाऊद से ज्यादा अमीर है। 2015 में भारत सरकार ने ब्रिटेन को दाऊद की सम्पत्तियों पर विस्तृत डोजियर सौंपा था। जनवरी में सऊदी अरब ने भी करीब 15 हजार करोड़ की दाऊद की सम्पत्ति को जब्त किया था। दाऊद के खिलाफ ताजा कार्रवाई ब्रिटेन के विकास स्रोत माने जाने वाले इलाके मध्य ब्रिटेन स्थित उसके ठिकानों पर हुई है, जिसका आधार भारत की ईडी और कई अन्य जांच एजेंसियों के साक्ष्य बने। यह सारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूएई और लंदन यात्रा के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों को सौंपे गए थे और उसी वक्त दाऊद के खिलाफ सख्त कार्रवाई का इरादा सामने आ गया था। ब्रिटेन में मंगलवार को दाऊद की जब्त की गई सम्पत्तियों में होटल, आवासीय इमारतें और दुकानें शामिल हैं। बर्मिंघम मेल की रिपोर्ट के मुताबिक भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि दाऊद की सबसे ज्यादा सम्पत्ति यूएई में है। लेकिन उसने अपनी काली कमाई का बड़ा हिस्सा ब्रिटेन में निवेश कर रखा है। दाऊद को पकड़ने में नाकामी के बाद उसके आर्थिक साम्राज्य पर प्रहार किया जा रहा है ताकि उसके पनाह देने वाले पाकिस्तान पर दबाव बढ़े। पिछले माह ब्रिटेन सरकार ने दाऊद को आर्थिक प्रतिबंध वाली सूची में शामिल किया था, जिसके बाद दाऊद के पाकिस्तान के तीन पते भी दर्ज किए गए। इसमें साऊदी मस्जिद के निकट व्हाइट हाउस और कराची के क्लिफटन रोड का घर शामिल है। दाऊद को ठिकाने लगाने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाना जरूरी है। ब्रिटेन की ताजा कार्रवाई से पाकिस्तान पर दबाव बढ़ने के पूरे-पूरे आसार हैं और माना जाना चाहिए कि इस मामले में जल्द वैश्विक अंडरस्टैंडिंग से निकली कोई कार्ययोजना सामने आएगी। ब्रिटेन सरकार की ताजा कार्रवाई के बाद दाऊद की सबसे ज्यादा सम्पत्तियों वाले देश यूएई पर भी दबाव बढ़ेगा  जिसने अभी तक चुप्पी साध रखी है। यूएई के दुबई शहर में दाऊद के कई होटल, मॉल और आवासीय इमारतें हैं। पाक वैसे भी पहले ब्रिटेन की आर्थिक पाबंदियों की सूची में है, फिर ब्रिक्स देशों के घोषणा पत्र में नाम आने से निशाने पर है। पाक कब तक दाऊद को छिपाएगा?

-अनिल नरेन्द्र

भाजपा के लिए वेकअप कॉल

भारतीय जनता पार्टी को लगातार चुनावों में झटके लग रहे हैं। अगर अब भी पार्टी नहीं चेती तो भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव नतीजों ने जहां कांग्रेस की बांछें खिला दी हैं वहीं भाजपा हाई कमान को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर दिल्ली की जनता जिसने उसे सिर पर बैठाया वह अब पार्टी से क्यों दूर हो रही है? बवाना विधानसभा उपचुनाव तथा दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में भाजपा को मिली पराजय स्पष्ट संकेत है कि दिल्ली की जनता चाहे वह बवाना के मतदाता हों, चाहे वह छात्र हों उनका भाजपा से मोह भंग हो रहा है। पार्टी हाई कमान के दिल्ली भाजपा के प्रति ज्यादा तवज्जो नहीं देने का परिणाम है कि भाजपा ने छात्रों की लॉबी में पटखनी खाई। चिन्ता का विषय यह होना चाहिए कि दिल्ली की सातों सीटों (लोकसभा) और तीनों नगर निगमों में कब्जा होने के बावजूद छात्र संघ चुनाव में बाजी कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई के पाले में चली गई? यद्यपि एक सचिव पद, एक संयुक्त सचिव पद व कुछ कॉलेजों में जीत के कारण अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का सूपड़ा साफ होने से बच गया, किन्तु जिस अतिउत्साह और लापरवाही के चलते दिल्ली इकाई ने पतंगबाजी की उसमें बो-काटा होता पहले ही नजर आ रहा है। केवल पीएम मोदी के नाम पर हर बार वोट मिलने की अब गुंजाइश नहीं दिखती। भाजपा मुख्यालय व नेता चापलूसों से घिरे हुए हैं और लगातार जनता से कटते जा रहे हैं। नोटबंदी, जीएसटी से परेशान जनता की मुश्किलें या तो कोई सुनने वाला नहीं है या फिर उन्हें नजरंदाज कर दिया जाता है। महंगाई आसमान छू रही है, जनता को दो वक्त की रोटी के लाले पड़े हुए हैं। मुश्किल जनता के सामने यह है कि फिलहाल उन्हें भाजपा का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा। इसी मजबूरी का फायदा भाजपा उठा रही है। कांग्रेस पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में आई है। राहुल गांधी भी अब पूरे फार्म में हैं। अगले महीने उनके अध्यक्ष बनने की चर्चा भी जोरों पर है। भाजपा का सबसे बड़ा हथियार विपक्षी दलों की कमजोर एकता का है। दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों में भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर थी। आम आदमी पार्टी बीच में नहीं थी इसलिए भाजपा विरोधी वोट कटे नहीं। अगर आप भी खड़ी होती तो कांग्रेस और आप में वोट बंट जाते और बीच में भाजपा साफ निकल जाती। भाजपा के हित में होगा कि वह जनता की समस्याओं के समाधान हेतु काम करे। केवल मोदी पर पार्टी आश्वस्त अब नहीं रह सकती। सत्ता मिलने के बाद से भाजपा नेता अहंकारी हो गए हैं। कहीं यही अहंकार पार्टी को न ले डूबे?

Saturday 16 September 2017

कच्चा तेल 53 प्रतिशत सस्ता और बिक रहा है उच्चतम स्तर पर

किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनी हुई सरकार का पहला कर्तव्य और जिम्मेदारी उसकी जनता के प्रति होती है। उसे यह सुनिश्चित करना होता है कि उसकी जनता खुशहाल रहे, दो वक्त की उसे रोटी-रोजी मिले। पर दुख से कहना पड़ता है कि हमारे देश में सरकारें गरीब जनता के हितों से कहीं ज्यादा अपनी मुनाफाखोरी में लगी हुई हैं। कमरतोड़ महंगाई से जनता त्रस्त पहले से ही है और राहत जहां दी भी जा सकती है वह भी नहीं दी जाती। हमारे सामने पेट्रोल-डीजल की कीमतें हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमत तीन साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है। बुधवार को मुंबई में पेट्रोल 79.48 रुपए और दिल्ली में 70.38 रुपए प्रति लीटर बिका। इस साल 16 जून से पेट्रोल-डीजल के दाम रोज तय हो रहे हैं। तब से पेट्रोल 7.48 प्रतिशत और डीजल 7.76 प्रतिशत महंगे हो चुके हैं। पर सरकार का कहना है कि वह इसमें दखल नहीं देगी। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि सरकार दाम तय करने के तरीके नहीं बदलेगी। बता दें कि अगस्त 2014 में एक्साइज ड्यूटी 9.48 रुपए थी। अब यही 21.48 रुपए प्रति लीटर है यानि पिछले तीन सालों में 126 प्रतिशत की वृद्धि। डीजल अगस्त 2014 में 3.56 रुपए थी जो अब 17.33 रुपए प्रति  लीटर है यानि इसमें 387 प्रतिशत का इजाफा ़73 हजार करोड़ रुपए। चार माह में केंद्र ने एक्साइज ड्यूटी से वसूले हैं। जबकि राज्यों ने वैट से 42 हजार करोड़ रुपए वसूले। दोनों को मिलाकर 1.15 लाख करोड़ रुपए बनते हैं। साधारण भाषा में जो पेट्रोल की कीमत/लागत सरकार को 26.65 रुपए प्रति लीटर पड़ती है उस पर 36.44 रुपए प्रति लीटर टैक्स के रूप में जाता है और 7.29 रुपए मार्जिन है। एक्साइज ड्यूटी में बढ़त के कारण पेट्रोल-डीजल में 387 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। विडंबना यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत वर्ष 2014 की तुलना में आधी हो गई है। इसके बावजूद देश में पेट्रोल-डीजल की कीमतें अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं। केंद्र सरकार के तीन साल के कार्यकाल में कच्चे तेल की कीमतें 53 प्रतिशत गिरी हैं, मगर बुधवार को पेट्रोल मुंबई में 80 रुपए तो दिल्ली में 70.38 रुपए प्रति लीटर तक पहुंच गया। एक जुलाई 2014 को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 112 डॉलर प्रति बैरल थी जो वर्तमान में घटकर 54 डॉलर प्रति बैरल रह गई है। विपक्ष में  रहते और लोकसभा चुनाव प्रचार में भाजपा ने तेल की कीमतों को बड़ा मुद्दा बनाया था। एक्साइज ड्यूटी और वैट में बढ़ोत्तरी पर रोक लगाने के लिए नई प्रणाली पर जोर दिया गया था। मगर सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने तीन साल में पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में 11 बार बदलाव किया है। पता नहीं कि सरकार को जनता के दुख की खबर नहीं या चिन्ता नहीं है?

-अनिल नरेन्द्र

बुलेट ट्रेन तो ठीक है पर रेलवे का चालचलन तो ठीक करो

गुजरात के दौरे पर आए जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मिलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को करीब एक लाख करोड़ रुपए की लागत वाली बुलेट ट्रेन की आधारशिला रखी। बुलेट ट्रेन को भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ 15 अगस्त 2022 तक दौड़ाने का लक्ष्य है। पहली बुलेट ट्रेन अहमदाबाद से मुंबई तक चलाई जाएगी। दो राज्यों के बीच सात घंटे की दूरी यह महज तीन घंटे में पूरा कर सकेगी। बुलेट ट्रेन वाकई बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसके जरिये देश में रेल सेवा आधुनिकतम दौर में प्रवेश करेगी। जहां बुलेट ट्रेन परियोजना के पुल गाढ़े जा रहे हैं वहीं बहुत से लोगों का मानना है कि बुलेट ट्रेन तो ठीक है पर पहले देश की मौजूदा रेल व्यवस्था को तो सही कर लो। देश में 66 हजार किलोमीटर में से 50 हजार किलोमीटर पटरियां अंग्रेजों के समय में बिछी थीं। जाहिर तौर पर दशकों बाद इनका रखरखाव रेलवे के लिए बड़ी चुनौती है। रेलवे के पास तमाम संसाधन होने के बावजूद आए दिन ट्रेनें पटरी से उतर रही हैं। एक तरफ पीएम मोदी भारत की पहली बुलेट ट्रेन का शिलान्यास कर रहे हैं, दूसरी तरफ देश की राजधानी के सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर ट्रेनों के पटरी से उतरने का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गुरुवार सुबह करीब 6.02 बजे जम्मू राजधानी 12426 प्लेटफार्म नम्बर-15 पर आ रही थी कि ट्रेन का आखिरी कोच पटरी से उतर गया। ट्रेन की स्पीड बहुत कम थी जिससे बड़ा हादसा नहीं हुआ। शिवसेना ने बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट पर पूर्ण असहमति जताई है। शिवसेना के मुखपत्र सामना में पार्टी ने गुरुवार को कहा कि देश में आधारभूत परेशानियां हल नहीं हो रहीं, मुंबई की लोकल ट्रेनें और भारतीय रेलवे परेशान है ऐसे में मुंबई-अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन गैर जरूरी है। इस परियोजना की ज्यादातर फंडिंग जापान से मिलने वाले 17 अरब डॉलर के लोन से होगी। सोशल मीडिया में इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर तंज कसे जा रहे हैं। वजह यह है कि कुछ दिनों से रेलगाड़ियों के पटरी से उतरने की लगातार घटनाएं हो रही हैं। यहां तक कि पूर्व रेलवे मंत्री सुरेश प्रभु को भी इस्तीफा देना पड़ा था। रोलिंग ज्वाइंट हैंडल से लिखा गया है, बुलेट ट्रेन का क्या...पहले जो है उसको तो पटरी पर रोक लो यार...। भवेश ने लिखा है मुझे नहीं लगता कि भारत को बुलेट ट्रेन की जरूरत है, इसमें भारी निवेश होगा जिसे रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारने में इस्तेमाल किया जा सकता है। सुंदर ने तंज कसते हुए लिखा हैöसाल 2022 की खबर ः मेनटेनेंस की वजह से बुलेट ट्रेन पटरी से उतर गई तो...? गुरुवार को जब गुजरात में यह कार्यक्रम शुरू हो रहा था, उससे पहले ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन पटरी से उतर गई। मेरा मानना है कि देश में बेशक बुलेट ट्रेन की भी जरूरत हो, मगर हमें मौजूदा रेल सुरक्षा पर अपना सारा ध्यान देना चाहिए।

Friday 15 September 2017

बौद्धों और रोहिंग्या मुस्लिमों की दुश्मनी क्यों शुरू हुई?

पिछले कुछ समय से रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा मीडिया में छाया हुआ है। इन रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत से वापस भेजने के फैसले की संयुक्त राष्ट्र ने आलोचना की है। हालांकि भारत ने इसका जोरदार तरीके से जवाब दिया है। भारत के स्थायी प्रतिनिधि राजीव के. चन्दर ने कहाöकानून का पालन करने के लिए किसी के प्रति कम सहानुभूति के तौर पर पेश नहीं किया जाना चाहिए। दूसरे देशों की तरह भारत भी अवैध शरणार्थियों को लेकर चिंतित है। लेकिन चन्दर ने साफ कहा कि रोहिंग्या शरणार्थी नहीं अवैध प्रवासी हैं। आखिर यह रोहिंग्या मुस्लिम और म्यांमार के बौद्धों के बीच समस्या क्या है? अहिंसा का सिद्धांत अन्य धर्मों की तुलना में बौद्ध धर्म के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। बौद्ध भिक्षु किसी की हत्या न करने की शिक्षा लेते हैं। इसलिए सवाल यह है कि क्यों बौद्ध भिक्षु मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैला रहे हैं और हिंसक भीड़ में शामिल हो रहे हैं? म्यांमार की हालत चिन्ताजनक है। यहां 969 ग्रुप नाम का एक संगठन कथित तौर पर धार्मिक दुर्भावनाएं फैला रहा है। इसका नेतृत्व आसिन बेराथु नाम के एक बौद्ध भिक्षु करते हैं। उन्हें धार्मिक घृणा फैलाने के आरोप में 2003 में जेल की सजा हुई थी। वो 2012 में रिहा हुए थे। वो खुद को म्यांमार का ओसामा बिन लादेन बताते हैं। मार्च 2013 में मेकटिला कस्बे के मुसलमानों पर उग्र भीड़ के हमले में 40 लोगों की मौत हो गई थी। हिंसा की शुरुआत सोने की एक दुकान से हुई थी। दोनों देशों में हुई हिंसा (म्यांमार और श्रीलंका) में आर्थिक संसाधनों को निशाना बनाया गया। यहां बहुसंख्यकों की महत्वाकांक्षाओं के लिए धार्मिक अल्पसंख्यकों को बलि का बकरा बनाया गया। 2013 में ही रंगून के उत्तर में स्थित ओक्कन में एक मुसलमान लड़की की साइकिल एक बौद्ध भिक्षु से टकरा गई थी। इसके बाद भड़की Eिहसा में कट्टर बौद्धों ने मस्जिदों पर हमले किए थे और करीब 70 घरों में आग लगा दी थी। इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई और नौ अन्य घायल हुए। धर्म के राजा के रूप में जाने जाने वाले म्यांमार के शासक बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के आधार पर युद्ध को जायज ठहराते हैं। जापान में भी बहुत से समुराई बौद्ध धर्म के जेन मत को मानते हैं। वे कई तरह की हिंसा को जायज ठहराते हैं। वे एक व्यक्ति की हत्या को भी करुणा की कार्रवाई बताते हैं। इसी तरह की दलीलें दूसरे विश्व युद्ध में भी दी गई थीं। श्रीलंका और बर्मा में उभरे राष्ट्रवादी आंदोलनों में बौद्ध धर्म ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और ब्रितानी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की अपील की। बाद में यह हिंसक हो गया। रंगून में 1930 में बौद्ध भिक्षुओं ने चार गोरों की हत्या कर दी थी। श्रीलंका में 1983 में फैला जातीय तनाव गृहयुद्ध में बदल गया। इस दौरान श्रीलंकाई मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की कमान तमिल विद्रोहियों ने संभाल ली थी। बर्मा में बौद्ध भिक्षुओं ने सैन्य शासन को चुनौती देने के लिए अपनी नैतिक सत्ता का इस्तेमाल किया और 2007 में लोकतंत्र की मांग की। उस समय शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में कई बौद्ध भिक्षुओं की जान भी गई। आजकल कुछ बौद्ध भिक्षु अपनी नैतिक सत्ता का इस्तेमाल बिल्कुल अलग तरीके से कर रहे हैं। वे अल्पसंख्यक हो सकते हैं, लेकिन ऐसे बौद्ध भिक्षुओं की संख्या हजारों में है जो खुद को एंग्री यंग मैन मानते हैं। दोनों देशों में शासन कर रही पार्टियों और बौद्ध भिक्षुओं के बीच का संबंध अभी भी साफ नहीं है। जम्मू में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर केंद्र सरकार द्वारा उन्हें म्यांमार वापस भेजने के निर्णय को चुनौती दी गई है। इससे पहले भी ऐसी याचिका दायर हो चुकी है। याचिका दायर कर गुहार लगाई गई है कि इस मामले में उनका पक्ष भी सुना जाए। मालूम हो कि पूर्व में दायर याचिका में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों के उल्लंघन सहित कई आधार बताते हुए सरकार के निर्णय को चुनौती दी गई है।

-अनिल नरेन्द्र