Saturday 29 July 2017

बिहार में सियासी भूकंप के वो तीन घंटे

बिहार में जो राजनीतिक भूकंप आया वह किसी हिन्दी फिल्म से कम नहीं था। महज तीन घंटे में बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने जा रहे हैं, यह खबर बुधवार साढ़े छह बजे के आसपास से आनी शुरू हो गई थी। जनता दल यूनाइटेड के विधायक दल के नेताओं के साथ बैठक के बाद नीतीश कुमार मीडिया से बात करते दिखे पर इससे पहले उन्होंने सीधा राजभवन का रुख किया। कयासों का दौर लंबा नहीं चल पाया क्योंकि महज आधे घंटे के अंदर मीडिया को नीतीश ने जानकारी दी कि मैंने इस्तीफा दे दिया है। नीतीश कुमार ने अपने इस्तीफे के ऐलान में लालू प्रसाद यादव को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा कि धन-सम्पत्ति गलत तरीके से अर्जित करने का कोई मतलब नहीं है। कफन में कोई जेब नहीं होती है। कोई लेकर नहीं जाता है। जाहिर है कि लालू यादव पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, आय से ज्यादा सम्पत्ति जमा करने का आरोप लगते रहे हैं, उसे नीतीश ने जोरदार तरीके से जनता के सामने रखा। नीतीश ने इन सबके बीच नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थन का मसला, चाहे वो नोटबंदी हो, चाहे राष्ट्रपति चुनाव हो उस पर अपनी रणनीति को भी सही ठहराया। रणनीति की बात करें तो मास्टर स्ट्रोक तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था। मोदी ने बिहार में जदयू-राजद गठबंधन को समाप्त करने के साथ ही विपक्ष के राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की संभावनाओं को भी तगड़ा झटका दिया है। मोदी कई दिनों से नीतीश कुमार के आगे चारा डाल रहे थे। आखिर बुधवार को उनकी कोशिश सफल हुई जब नीतीश ने राजद गठबंधन से बाहर निकलते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे दे दिया और अगले दिन ही भाजपा के सहयोग से नई सरकार बना ली। नरेंद्र मोदी का कांग्रेसमुक्त भारत और पूरे देश को भगवामय करने का सपना काफी हद तक सफल होते दिख रहा है। इस वक्त पूरे देश में भाजपा और उसके समर्थन से 13 राज्यों में सरकार है। जबकि कांग्रेस महज पांच राज्यों में सिमट कर रह गई है। बिहार में गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस घटकर चार राज्यों में रह जाएगी और भाजपा का आंकड़ा बढ़कर 14 राज्यों में बढ़ जाएगा। राजद प्रमुख लालू यादव का आरोप तो है ही, सियासी जानकारों के मुताबिक बुधवार के घटनाक्रम की पूरी क्रिप्ट तय थी। पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद के इस्तीफे के बाद बिहार का अतिरिक्त भार पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी के पास है। उन्हें बुधवार को पटना में नहीं रहना था। वे खासतौर पर दोपहर वहां पहुंचे। विधायक दल की बैठक के बाद नीतीश ने जब उन्हें अपना इस्तीफा सौंपा तो उन्होंने तत्काल स्वीकार कर लिया। उन्होंने जदयू विधायकों की बैठक से पहले ही राज्यपाल से समय लिया था। इसके चन्द मिनट बाद पीएम मोदी ने बधाई का ट्वीट कर नीतीश को साथ आने का न्यौता दिया। माना जा रहा है कि नीतीश का कद बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया। गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव ने पूरे घटनाक्रम पर सवाल उठाते हुए गुरुवार रात 1.20 पर ट्वीट किया कि राज्यपाल ने हमें सुबह 11 बजे का समय दिया था और अचानक एनडीए को 10 बजे शपथ ग्रहण के लिए कह दिया गया। इतनी जल्दी क्या है श्री ईमानदार और नैतिक जी? तो क्या लालू का आरोप सही है कि नीतीश और भाजपा की साठगांठ पहले से थी? भाजपा नीतीश के साथ किसी डील के तहत महागठबंधन को न केवल बिहार ही में तोड़ना चाहती थी बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन के विस्तार को रोकना भी चाह रही है। नीतीश को मोहरा बना भाजपा ने अपनी रणनीति को सफलता दिला दी। भाजपा-जदयू द्वारा सरकार बनाने से साफ है कि ये सब अचानक नहीं, बल्कि एक पूर्व नियोजित रणनीति के तहत हुआ। राजनीतिज्ञ वही होता है जो आने वाले खतरे की आहट समझ ले। ज्यादा सीट मिलने के बावजूद राजद जदयू के साथ छोटा भाई वाले बर्ताव से आहत था। नीतीश ने सफाई देते हुए कहा कि मौजूदा परिस्थिति में मेरे लिए काम करना मुश्किल था। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चाहते थे कि मैं उन्हें संकट से निकालूं, लेकिन यह संकट उनके खुद का लाया गाया था। राजद मंत्री मेरी कोई बात नहीं सुनते थे वह लालू को रिपोर्ट करते थे। उधर  लालू ने नीतीश पर कई आरोप लगाए हैं। नीतीश हत्या के आरोपी हैं, लालू का कहना है। जीरो टालरेंस वाले पर 302 का केस है। 1991 में हत्या का केस लगा। यह नीतीश के चुनाव आयोग में दिए हलफनामे में है। भ्रष्टाचार से बड़ा है अत्याचार केस को स्टे कराया गया है। अब हाई कोर्ट में चल रहा है। इसमें उन्हें उम्रकैद या फांसी की सजा हो सकती है इसीलिए नीतीश ने भाजपा के साथ साठगांठ कर महागठबंधन तोड़ा। ताजा घटनाक्रम के बाद लालू और तेजस्वी यादव का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? नीतीश के भाजपा के साथ हाथ मिलाने के बाद लालू के लिए बिहार सहित राष्ट्रीय राजनीति में खुद को प्रासंगिक बनाए रखना आसान नहीं होगा। तमाम भ्रष्टाचार के केसों में घिरने के बाद लालू के सामने अधिक राजनीतिक विकल्प भी नहीं हैं। ऐसे में अब यह तय होगा कि लालू 27 अगस्त की रैली कर पाते हैं या नहीं? इस रैली में उन्होंने तमाम विपक्षी दलों के नेताओं को बुलाया है। फिर इस बात की भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस का क्या रुख होता है। राहुल गांधी नीतीश पर बड़ा भरोसा करते थे। मोदी की भाजपा के खिलाफ 2019 की तैयारी में वह विपक्ष की तरफ से नीतीश को प्रमुख भूमिका में रखना चाहते थे। कांग्रेस अभी इस प्रश्न का जवाब नहीं दे रही है कि उसकी भविष्य की क्या रणनीति है? बिहार का यह घटनाक्रम 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता को बड़ा झटका तो है ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ महागठबंधन को तोड़कर नीतीश ने अपने राजनीतिक जीवन का एक बड़ा दाव भी खेला है। महागठबंधन से अलग होने के लिए नीतीश ने अंतरात्मा की आवाज और नैतिकता की दलील दी। ऐसा करके उन्होंने उस सहानुभूति को भी पा लिया जिसे लालू अपने बेटे का इस्तीफा दिलाकर हासिल कर सकते थे। यह इसलिए भी उनका राजनीतिक कौशल कहा जाएगा क्योंकि उन्होंने सत्ता भी नहीं गंवाई और राष्ट्रीय फलक पर अपना कद भी बढ़ा लिया। वह खुद को ऐसे नेता के तौर पर पेश करने में भी सफल रहे जो भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा नजर आता है। दूसरी तरफ लालू यादव एक बार फिर खुद को सत्ता के गलियारों से बाहर पा रहे हैं। जहां तक बिहार की जनता का सवाल है उसे लगता है कि लालू फैक्टर के हटने से बिहार को स्वच्छ प्रशासन मिलेगा, भ्रष्टाचार और जंगलराज से मुक्ति मिलेगी। याद रहे कि नीतीश ने भाजपा के साथ न केवल कहीं अधिक सहज होकर सरकार ही चलाई बल्कि बिहार को दुर्दशा से बाहर निकालने में भी सफलता पाई थी। हालांकि इस घटनाक्रम से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें, तमाम विपक्ष असहज होगा पर सच तो यह है कि वह और ज्यादा दिशाहीन एवं दुर्बल दिखने लगा है।

-अनिल नरेन्द्र

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