Friday 30 May 2014

जन धारणाओं की परवाह

जनता की इच्छा के अनुसार नरेन्द्र मोदी की सरकार बन तो गई किन्तु जनाकांक्षाओं के अनुरूप सरकार को काम भी करना होगा। यदि सब्सिडी के 12 गैस सिलेंडरों की संख्या घटाकर 9 की जानी है तो फिर सरकार की छवि जनता में कैसी बनेगी इसका अनुमान लगाने के लिए मस्तिष्क पर ज्यादा दबाव डालने की जरूरत नहीं है।
अच्छे दिन आने वाले हैं का जो सपना बांटा गया वह बिखर भी सकता है। यदि सरकार जड़कटे लोगों के इशारे पर चली तो। कितना आश्चर्यजनक है कि पिछली सरकार को जनविरोधी साबित करने के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने क्या-क्या तरीके नहीं अपनाए।
कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के प्रति लोगों में धारणा बन गई कि वह जनविरोधी है। पूर्व सरकार चिल्लाती रही कि पेट्रोलियम उत्पाद के दाम तय करना उसके हाथ में नहीं है लेकिन देश की जनता की एक न सुनी और यूपीए सरकार ने जनविरोधी साबित करने वाले उन सारे तर्कों को मान्यता दी जो विरोधी पार्टियों द्वारा पेश किए गए। अब सत्ता संभालते ही पेट्रोलियम मंत्री कह रहे हैं कि उनके अधिकारियों ने उन्हें जो रिपोर्ट दी है उसके मुताबिक देश के 89 प्रतिशत लोग 9 सिलेंडर ही इस्तेमाल करते हैं। इसलिए 12 से घटाकर 9 किए जा सकते हैं। मंत्री को अधिकारियों द्वारा दी गई उस रिपोर्ट पर ज्यादा भरोसा लगता है जिसके मुताबिक 70 प्रतिशत परिवार 6 सिलेंडर में काम चला लेते हैं।
भगवान ऐसे मंत्रियों को सद्बुद्धि दें कि वे अधिकारियों की रिपोर्ट पर पूरी तरह से भरोसा करके फैसले न लें अन्यथा इस सरकार के बारे में यदि जन धारणा गलत बनी तो देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी।
असल में मोदी सरकार के मंत्रियों में ज्यादातर तो अनुभवहीन और जड़कटे हैं जिनकी मजबूरी है कि वे अफसरशाहों के इशारे पर काम करेंगे। बहरहाल जन धारणाओं को गंभीरता से लेना होगा मोदी सरकार को।

-अनिल नरेन्द्र

आप का बिखरता कुनबा

थूक के चाटने की आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल की आदत-सी बन गई है। मुचलका न भरने को खुद का व पार्टी का अहम नियम बताकर इसे भरने से इंकार करने पर जेल भेजे गए अरविंद केजरीवाल ने मंगलवार को मामले में यू-टर्न लेते हुए खुद ही पार्टी के अहम नियम को तोड़ दिया। केजरीवाल ने निचली अदालत के फैसले को चुनौती हाई कोर्ट में दी थी जिसके तहत बांड न भरने पर उन्हें तिहाड़ जेल भेजा गया था। मंगलवार को हाई कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए केजरीवाल से कहाöपहले बांड भरकर बाहर आएं फिर कानूनी सवाल खड़े करें। वह इसे सम्मान से जोड़कर न देखें। केजरीवाल ने निचली अदालत में जाकर बांड भरा और बाहर आए। अरविंद केजरीवाल को बाहर आने के लिए कई तरह के दबाव थे। छह महीने पहले जिस आम आदमी पार्टी से वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद दिखी थी वह आज बिखरने के कगार पर आ गई है। आम आदमी पार्टी ने ख्वाबों में उम्मीदों की जो इमारत तामीर की थी उसकी दीवारें अब दरकने लगी हैं। दिल्ली के आम आदमी की नब्ज पकड़कर एका एक देश के सियासी आसमान पर छा जाने वाली आम आदमी पार्टी पर अब अविश्वास के बादल छाने लगे हैं, साथ ही नाउम्मीदी भी बढ़ने लगी  है। तभी तो शाजिया इल्मी और कैप्टन गोपीनाथ जैसे लोग पार्टी छोड़ गए, वह भी स्वराज की बात करने वाली पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र न होने की तोहमत लगाकर। जानकारों की मानें तो पार्टी के अंदर मची उथल-पुथल का यह शुरुआती नतीजा है। अभी कई और बड़े दिग्गज पशोपेश में हैं कि उन्हें अब आगे क्या करना चाहिए? शाजिया ने जिस तरह के गम्भीर सवाल उठाते हुए पार्टी से इस्तीफा दिया है वह चौंकाने वाला जरूर है। शाजिया न केवल पार्टी की संस्थापक सदस्य और प्रमुख मुस्लिम चेहरा रही हैं बल्कि अन्ना आंदोलन के वक्त से ही बेहद सक्रिय रही हैं। पार्टी छोड़ते वक्त शाजिया ने  न केवल आप में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव का आरोप लगाया बल्कि केजरीवाल की जेल और बेल की राजनीति को भी निशाना बनाया। यह  बेहद गम्भीर बात है कि जो पार्टी स्वराज को अपना मुख्य मुद्दा बताती रही हो उसकी एक संस्थापक सदस्य खुद पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के अभाव का आरोप लगाए। आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता का ग्रॉफ कितनी तेजी से गिर रहा है इसका एक परिचायक पार्टी को आने वाला चंदा भी है। सोमवार को शाम 4 बजे तक दिल्ली से महज 4 लोगों ने 711 रुपए का चंदा पार्टी को दिया। यह इस महीने के किसी एक दिन में दिल्ली से पार्टी को तीसरी बार मिला सबसे कम चंदा है। पिछले छह दिनों में दिल्ली से पार्टी को कुल मिलाकर एक लाख रुपए का चंदा भी नहीं मिला। दानी लोगों का कहना है कि हमारी नाराजगी के कई कारण हैं। पहले केजरीवाल का सरकार से भागना और उसके बाद दिल्ली में राष्ट्रपति शासन, लोकसभा चुनाव में पार्टी को करारी शिकस्त, पार्टी के बड़े नेताओं का इस्तीफा और नदारद रहना, विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी का बदला स्टैंड और अब केजरीवाल का बेल-जेल का चक्कर। दो कदम आगे और फिर दो कदम पीछे की सियासत करने की वजह से पार्टी की छवि को भारी नुकसान हुआ है। अरविंद केजरीवाल अब बाहर आ गए हैं। उनका पहला काम होगा अपने बिखरते कुनबे को सम्भालना।

Thursday 29 May 2014

दांव पर लगा 18 राज्यपालों (गवर्नरों) का भविष्य?

स्पष्ट बहुमत के साथ भारतीय जनता पाटी के केंद्र में सत्ता पर काबिज होने से एक पश्न जो उठेगा वह होगा कांग्रेस नीत यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए 18 से ज्यादा राज्यपालों के भविष्य का। इन पर अब हटने की तलवार जरूर लटक गई है। कुछ विशेषज्ञों व विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार के लिए इनको हटाना आसान नहीं होगा। अगले छह से आठ महीने में जिन राज्यपालों का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है उनमें कमला बेनीवाल (गुजरात), एमके नारायणन (पश्चिम बंगाल), जेबी पटनायक (असम), पाटिल (पंजाब) और उर्मिला सिंह (हिमाचल पदेश) पमुख हैं। राज्य में लोकायुक्त नियुक्ति के मुद्दे पर गुजरात में मोदी सरकार के साथ कमला बेनीवाल का विवाद किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की नियुक्ति इस साल मार्च में केरल के राज्यपाल के तौर पर हुई थी। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा को अपैल 2012 में दूसरा कार्यकाल दिया गया। पूर्व गृह सचिव वीके दुग्गल को दिसंबर 2013 में मणिपुर का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। नई राजग सरकार की समीक्षा के दायरे में अन्य जो राज्यपाल आ सकते हैं उनमें बीएल जोशी (उत्तर पदेश में अपना दूसरा कार्यकाल संभाल रहे हैं), वीवी वाचू (गोवा), के. शंकर नारायण (महाराष्ट्र में अपना दूसरा कार्यकाल संभाल रहे हैं), के रोसैया (तमिलनाडु), रामनरेश यादव (मध्य पदेश), डी.वाई पाटिल (बिहार), श्रीनिवास दादा साहेब पाटिल (सिक्किम), अजीज कुरैशी (उत्तराखंड), वकोम पुरुषोत्तम (मिजोरम) और सैयद अहमद (झारखंड) के नाम हैं। सुपीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मई 2010 में दिए गए फैसले में कहा कि राज्यपाल को हटाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त कारण होने चाहिए। कोर्ट ने यह कहते हुए एक न्यायिक सावधानी रखी कि वह महज उस आधार पर हस्तक्षेप नहीं करेगा कि उसे हटाने के आदेश की कुछ और ही वजह है या दी गई सामग्री/कारण अपर्याप्त है। ऐसे में हटाए गए राज्यपालों के लिए न्यायिक समीक्षा का रास्ता बहुत आशाजनक नहीं है। यूपीए ने 2004 में सत्ता में आने पर एनडीए के समय नियुक्त अनेक राज्यपालों को हटा दिया था और कुछ ने खुद ही इस्तीफा दे दिया था। विश्लेषकों का कहना है कि इस बात की पूरी संभावना है कि मोदी सरकार बनते ही कुछ राज्यपाल खुद ही शालीनता से इस्तीफा दे दें और हटाने की शर्मिंदगी से बचना चाहें। जब यूपीए ने 2004 में एनडीए द्वारा नियुक्त अनेक राज्यपालों को हटाया था तब इन्हीं आदेशों को भाजपा के सांसद रहे वीपी सिंघल ने सुपीम  कोर्ट में चुनौती दी थी जिस पर उक्त फैसला आया था। तत्कालीन कांगेस सरकार ने राज्यपालों को हटाने का पूरा बचाव किया था और कहा था कि राष्ट्रपति (केंद्रीय कैबिनेट) की पशंसा बनी रहने तक ही राज्यपाल पद पर रह सकता है। जब मामला राजनीतिक हो तो जाहिर है कि कोर्ट में आना बहुत उत्साहजनक नहीं रहता। संविधान के अनुच्छेद 156.1 में राज्यपाल को हटाने की कोई पकिया नहीं है। दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग जिनकी नियुक्ति इसी साल हुई थी पर भी तलवार लटकी हुई है। एक अधिकारी ने कहा कि यह सामान्य बात है कि नई सरकार राजभवन में जमे कुछ राज्यपालों से इस्तीफा देने को कहे क्योंकि शायद वह उसके खाके में फिट नहीं होते हैं।

-अनिल नरेंद्र

नवाज शरीफ को नरेंद्र मोदी की खरी-खरी

पधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पदभार संभालते ही दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्षों से मेल-मुलाकातों का दौर शुरू कर दिया। पदभार संभालने के बाद वह हैदराबाद हाउस पहुंच गए जहां सुबह सवा नौ बजे से ही मारीशस और सार्क देशों के राष्ट्र पमुखों से उनकी मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ। सबसे अहम मुलाकात मोदी और पाकिस्तान के वजीर--आजम नवाज शरीफ के बीच हुई। हैदराबाद हाउस में वह मुलाकात औपचारिक रूप से 1210 बजे दोनों की वार्ता शुरू हुई। पाक पधानमंत्री के साथ 14 सदस्यीय एक पतिनिधिमंडल आया है। इसमें नवाज शरीफ के पुत्र भी हैं। वे एक बड़े बिजनेस मैन भी है। यह पहले से ही तय था कि नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने आ रहे पाकिस्तानी पधानमंत्री नवाज शरीफ से जब भारतीय पीएम की मुलाकात होगी तो वह महज दो देशों के नेताओं के बीच की सामान्य वार्ता नहीं होगी। पधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ के साथ अपनी पहली बैठक में आतंकवाद को लेकर दो टूक बात की। तय समय से ज्यादा चली बातचीत में मोदी ने नवाज से साफ कहा कि हम पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रिश्ते चाहते हैं लेकिन रिश्तों को आगे बढ़ाना है तो पाकिस्तान को यह देखना होगा कि भारत विरोधी आतंकवाद और हिंसा को खत्म किया जाए। नवाज शरीफ के साथ मोदी की मुलाकात के लिए 35 मिनट का समय तय किया गया था लेकिन दोनों की बैठक करीब 45 मिनट तक चली। मोदी ने नवाज शरीफ से यह भी कहा कि 26/11 के आतंकवादी हमलों की पाकिस्तान में चल रही जांच में पगति नहीं दिख रही है। उन्होंने अफगानिस्तान में हैरात में स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हुए हमले का भी जिक किया और पाकिस्तान में रह रहे भारत के भगोड़े आतंकवादी दाउद इब्राहिम का मसला भी उठाया। नवाज शरीफ ने वार्ता के बाद यह टिप्पणी की हम दोनों इस बात पर सहमत थे कि यह बैठक दोनों देशों के लिए एक ऐतिहासिक मौका है। मैंने अनुरोध किया कि हमें मिलकर क्षेत्र को अस्थिरता और असुरक्षा से छुटकारा दिलाना चाहिए जो दशकों से हमे घेरे हुए है। मैंने 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर बैठक का भी जिक किया और कहा कि लाहौर घोषणा पत्र जारी होने के बाद रिश्तों को हम वहीं से आगे बढ़ाना चाहेंगे। शायद ही कोई होगा जिसने नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ की पहली मुलाकात से उम्मीदें बांध रखी हों। हम तो इतने में ही खुश थे कि शरीफ ने अपनी सेना और कट्टरपंथियों के विरोध का जोखिम उठाते हुए एक भाजपा पधानमंत्री के शपथ समारोह में शिरकत करने की हिम्मत दिखाई। इसमें भी शक नहीं कि अपने शपथ समारोह में दक्षेस देशों के नेताओं को आमंत्रित करके मोदी ने कूटनीति की पहली गेंद पर ही छक्का मार दिया था क्योंकि पाकिस्तान से जारी शीत युद्ध में देश उलझा हुआ है उसमें नवाज शरीफ के अलग से बुलाने की गुंजाइश नहीं थी। चुनाव पचार के दौरान भी मोदी ने ऐसे ही सपाट शब्दों में अपना रुख दिखाया था और अब इसका अनुभव नवाज शरीफ को भी हो गया होगा। यह जरूरी भी था कि पाकिस्तान के सामने यह बात बिना लाग-लपेट के रखी जाए कि वह न तो अपने यहां सकिय भारत विरोधी तत्वों पर लगाम लगाने में गंभीरता का परिचय दे रहा है और न ही मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित कर रहा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि अफगानिस्तान के हैरात में जो हमला हुआ उसके पीछे भी आईएसआई का हाथ था। पाकिस्तान यह तर्क नहीं दे सकता कि अफगानिस्तान की गतिविधियों से उसका लेना-देना नहीं क्योंकि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजाई ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान में स्थित आतंकी संगठन लश्कर--तैयबा का हाथ नजर आया। इसके अतिरिक्त यह तो जगजाहिर ही है कि पाकिस्तान में मुंबई हमले के दोषियों के खिलाफ जो कानूनी कार्रवाई चल रही है वह कितनी शिथिल और निराशाजनक है। दोनों पधानमंत्रियों की बातचीत के बाद विदेश सचिव स्तर की वार्ता पर सहमति बनी। इस स्तर की वार्ता में कोई हर्ज नहीं लेकिन पाकिस्तान को भरोसा पैदा करने के लिए कोई न कोई पहल तो करनी ही होगी। वह चाहे आतंकी सरगना हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई की हो अथवा दाउद इब्राहिम को भारत को सौंपने की। दोनों नेताओं के बीच बातचीत में कारोबारी रिश्ते सुधारने पर भी चर्चा हुई। कारोबारी रिश्ते सुधरने ही चाहिए लेकिन सभी जानते हैं कि जहां यह बात हो कोई न कोई आतंकी वारदात करके सार्थक पहल को नुकसान पहुंचाता है। कारोबारी रिश्ते आतंकवाद की कीमत पर नहीं हो सकते। नवाज शरीफ की दुविधा हम समझ सकते हैं। जहां उन्हें पाकिस्तानी सेना का ध्यान रखना होगा वहीं कट्टरपंथी संगठनों के दबाव को भी झेलना पड़ रहा है। मोदी के पीछे जो पबल जनमत है वही उनकी हिम्मत है और इसका एहसास भी शरीफ को कराने में वह नहीं चूके। नरेंद्र मोदी ने पदभार संभालते ही अपनी पाथमिकताएं जाहिर कर दी हैं। यह अच्छा संकेत है।

Wednesday 28 May 2014

मैं नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं...

मैं नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा। कुछ इन पंक्तियों के साथ ही सोमवार शाम को छह बजे के करीब राष्ट्रपति भवन में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच देश के 15वें और यूपी से आए 10वें प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने शपथ ली। जिस शान से नरेन्द्र मोदी चुनाव जीतकर आए उसी शान से उनका सोमवार को राजतिलक भी हुआ। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री सहित सात पड़ोसी देशों के प्रमुख या प्रतिनिधियों के बीच मोदी ने पूरी धूमधाम के साथ शपथ तो ली लेकिन अपने मंत्रिमंडल के चेहरों से बहुत नहीं चौंकाया। उनकी सरकार का मंत्रिमंडल छोटा है, लेकिन गैर-राजनीतिक नहीं। जाति-संप्रदाय समीकरण को ध्यान में रखते हुए आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक सभी को प्रतिनिधित्व मिला। कांग्रेस से भाजपा में आए दो नेताओं को भी मोदी ने अपनी टीम में जगह देकर सामंजस्य का संकेत दिया। चुनावी राज्यों के लिए बिसात बिछाते हुए उन्होंने कुल 45 मंत्रियों को शपथ दिलाई। सरकार 83 मंत्री बना सकती है, लेकिन कम सरकार और ज्यादा काम के नारे पर सत्ता में आए मोदी ने अपनी कार्यशैली से समझौता नहीं किया। यूपीए सरकार के भारी-भरकम मंत्रिमंडल के विपरीत इस सरकार की शुरुआत चार दर्जन से भी कम मंत्रियों से की गई है। हालांकि कुल मिलाकर नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट संतुलित है पर फिर भी कुछ प्रश्न जरूर उठ रहे हैं। कैबिनेट में कौन-सा नेता किस महकमे का मंत्री बनता है यह इतना महत्वपूर्ण नहीं, इससे महत्वपूर्ण यह है कि क्या वह डिलीवर कर सकता है? मोदी सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह इन उम्मीदों पर खरी उतरे जिसकी वजह से उन्हें इतना बड़ा मैनडेट मिला है। किसी भी शासक की सफलता का पहला आधार यही है कि उसके मंत्री एक टीम के रूप में काम करें। देश जिन समस्याओं से दो-चार हो रहा है उन्हें देखते हुए यह आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है कि प्रधानमंत्री की तरह उनके सभी सहयोगी भी हर तरह की चुनौती का मुकाबला करने में सक्षम हों। राजनाथ सिंह का मोदी कैबिनेट में नम्बर दो होना इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि मोदी भी दबाव में आ गए। वह नम्बर 2, 3, 4 के चक्कर से नहीं बच सके। अगर हम मंत्रियों और उनके विभागों की बात करें तो राजनाथ सिंह को गृह मंत्रालय दिया गया है। अरुण जेटली को वित्त मंत्रालय और डिफेंस दिया गया है। अल्पसंख्यक चेहरा हैं नजमा हेपतुल्ला। प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या राजनाथ सिंह जैसे शातिर सियासतदान गृह मंत्रालय के लिए सही च्वाइस हैं? अरुण जेटली एक बेहतरीन वकील हैं पर वित्त में वह कितने एक्सपर्ट हैं, हमें नहीं मालूम? नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में सात महिलाओं को शामिल किया है। इनमें दो नाम चर्चा में ज्यादा हैं। नजमा हेपतुल्ला और टीवी स्टार दो बार चुनाव हार चुकीं स्मृति ईरानी का। स्मृति ईरानी को किस बिनाह पर कैबिनेट दर्जा दिया गया है, यह हमारी समझ से तो बाहर है। इसी तरह मोदी सरकार में अल्पसंख्यक चेहरा होगा नजमा हेपतुल्ला का। बेशक नजमा हेपतुल्ला एक स्वच्छ छवि की महिला हैं, मौलाना आजाद की रिश्तेदार हैं पर भाजपा में मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज  हुसैन ज्यादा दिखने वाले चेहरे हैं। बेहतर होता कि नकवी या शाहनवाज हुसैन को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता। अल्पसंख्यकों में मोदी को अपने प्रति विश्वास पैदा करना होगा। इस चुनाव में दुर्भाग्य से ध्रुवीकरण के कारण जो विभाजन हो गया है उसको पाटना अत्यंत आवश्यक है। मोदी को सारे देश को साथ लेकर चलना होगा और इस दृष्टि से देश के अल्पसंख्यक महत्वपूर्ण हैं। अब मोदी सिर्प उनके नेता नहीं रह गए जिन्होंने उन्हें वोट दिया है। मोदी को हर कदम पर याद रखना होगा कि वह उन लोगों के भी पीएम हैं जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया। मोदी को यह याद रखना होगा कि यह परिवर्तन का मैनडेट है, वोट फॉर चेंज है। इसका मतलब है कि उन्हें अपने वादों पर खरा उतरना होगा। इस मंत्रिमंडल में मोदी ने यह सुनिश्चित कर लिया कि उनके चयन से चुनाव में जाने वाले राज्यों और खुलकर भाजपा के लिए वोटों की बरसात करने वाले राज्यों को निराशा न हो। हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं लिहाजा हरियाणा जैसे छोटे राज्य से भी दो मंत्री बनाए गए जबकि महाराष्ट्र से छह। विडम्बना यहां यह रही कि उस राजस्थान से जहां वसुंधरा राजे ने 25 में से 25 सीटें जीती वहां से एक ही मंत्री को जगह मिल पाई। वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सिंह लगातार तीसरा लोकसभा चुनाव जीते हैं उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान मिलता तो अच्छा रहता। उत्तर प्रदेश में देश की 20 प्रतिशत आबादी रहती है तो मोदी की टीम में 20 प्रतिशत हिस्सा यूपी को ही मिला। यहां से नौ मंत्री बनाए गए। बिहार से भी पांच मंत्री बनाए गए जिनमें दो सहयोगी दलों के हिस्से में गए। मध्य प्रदेश और राजस्थान को बहुत बड़ा हिस्सा नहीं मिला। भाजपा की अगुवाई में तीसरी बार बनी मोदी सरकार में पहली पौड़ी गायब है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष रहे लाल कृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी को इसलिए काट दिया गया कि वह 75 साल से ऊपर के हैं। हालांकि दोनों न केवल सफल मंत्री रहे बल्कि उनका अनुभव भी फायदेमंद रहता। गृह मंत्रालय में अगर अलग से आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय बनाया जाता तो आतंकवाद से लड़ने में यह सरकार ज्यादा धारदार साबित हो सकती थी। मोदी विरोधी तेवरों के लिए चर्चित सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर मोदी ने जहां संतुलित राजनीति का चेहरा दिखाने की कोशिश की है वहां इससे यह भी साफ जाहिर होता है कि मोदी भी दबाव में आ गए। अरुण जेटली को तो जिम्मेदारियों से लाद दिया गया है... उन्हें एक साथ वित्त, सुरक्षा और कारपोरेट अफेयर्स के भारी-भरकम और अत्यंत महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए हैं। इन तीनों मंत्रालयों की चुनौतियां देश की आर्थिक बदहाली का बड़ा कारण रही हैंöअब देखना यह है कि जेटली देश को इस दलदल से निकालने का मोदी का वादा कैसे पूरा करते हैं? देश की सुरक्षा व्यवस्था खासकर सेना का खस्ताहाल, वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में फैलते तनाव को देखते हुए, अत्यंत चिन्ता की बात जरूर है। सार्प देशों के अध्यक्षों को बुलाकर मोदी ने नई विदेश नीति के संकेत दिए हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के शपथ ग्रहण समारोह में आना बड़ी बात है। तमाम दबावों के बावजूद वह यहां आए उनका स्वागत है और उम्मीद की जाती है कि दोनों पड़ोसियों के रिश्तों में सुधार होगा। पड़ोसी देशों के प्रति मैत्री भाव से भी नरेन्द्र मोदी की पहल भारत के बड़प्पन का परिचायक तो है ही, साथ ही वह देश-विदेश में उम्मीदों का संचार करने वाले भी हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Tuesday 27 May 2014

हार के बाद कांग्रेस में निशाने पर राहुल और उनकी टीम

लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोपों का खेल और तेज हो गया है। उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर पार्टी के अन्दर समर्थन और विरोध की  जुबानी जंग बढ़ती ही जा रही है। हार के लिए टीम राहुल के बहाने खुद राहुल पर निशाना साधा जा रहा है। कांग्रेस नेताओं पे एक गुट का कहना है कि नेतृत्व वाले पद उन्हीं को दिए जाएं जिन्हें जमीन पर काम करने का अनुभव है। इन नेताओं ने टीम राहुल पर परोक्ष हमला करते हुए कहा कि कांग्रेस को अगर फिर से खड़ा होना है तो उसे अपनी समीक्षा करनी होगी। कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा ने बुधवार को कहा था कि राहुल के सलाहकार हवा का रुख भांप नहीं पाए। जिन लोगों को चुनाव का कोई अनुभव नहीं था वही अहम किरदार निभा रहे थे। उन्होंने कहा कि पार्टी के प्रति गहरी वफादारी की वजह से उन्होंने यह सब कहा। सोनिया से मिलकर आने वाली प्रिया दत्त का भी मानना था कि पार्टी आम लोगों से कट गई थी। देवड़ा का कहना था कि जमीनी सच्चाई को समझने के लिए जमीन पर काम करना और चुनावी लड़ाई में हिस्सा लेना जरूरी है। पार्टी में अगर किसी को नेतृत्वकारी पद दिया जाए तो यही उसका आधार होना चाहिए। पार्टी के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी भी देवड़ा की इस राय से इत्तेफाक रखते हैं। उनका कहना है कि गलतियों को सुधारने के लिए निर्मम और ईमानदार समीक्षा की जरूरत है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि मिलिंद ने जो कहा वह पूरी तरह भले ही सही नहीं हो लेकिन इसमें काफी हद तक सच्चाई है। पार्टी में ऐसे लोगों की राय पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए क्योंकि लोगों के बीच यह धारणा है कि चुनावी अभियान में ऐसे लोगों को नेतृत्व सौंपा गया जिन्हें चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं था। चुनावी अभियान और गठबंधन के मामले में पार्टी को नौसिखियों की सलाह पर निर्भर रहना पड़ा। कांग्रेस के सहयोगी दल एनसीपी नेता नवाब मलिक ने कहा कि कांग्रेस के बड़े नेताओं के अंग्रेजी में बोलने की वजह से ही चुनाव में हार हुई। उन्होंने कहा कि भाजपा के नेता यूपीए सरकार की नीतियों के खिलाफ हिन्दी में आक्रामकता के साथ बोलते थे जिससे उनकी बात अधिक लोगों तक पहुंचती थी। लेकिन भाजपा नेताओं के हमले पर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और पी. चिदम्बरम की प्रतिक्रिया अंग्रेजी में ही होती थी। जैसी उम्मीद थी कुछ कांग्रेसी नेताओं ने प्रियंका गांधी को आगे लाने की वकालत भी की। यूपीए-2 में खाद्य मंत्री रहे केवी थॉमस ने कहा कि एक कांग्रेसी होने के नाते हमारी इच्छा है कि प्रियंका को मुख्य कार्यक्षेत्र में आना चाहिए, यह इसलिए भी जरूरी है कि प्रियंका में जनता से जुड़ने की स्वाभाविक क्षमता है। उन्हें अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के साथ एक टीम के रूप में काम करना चाहिए। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद संसद के निचले सदन में नेता प्रतिपक्ष चुनने के मसले पर कांग्रेसी दिग्गजों और राहुल ब्रिगेड के बीच भी खींचतान शुरू हो गई है। राहुल ब्रिगेड ने पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ को इस पद पर नियुक्त करने के किसी भी कदम का विरोध करते हुए कहा है कि लोकसभा में पार्टी का चेहरा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ही होंगे। पार्टी सूत्रों ने बताया कि कमलनाथ को पार्टी के कुछ ऐसे पुराने दिग्गजों का समर्थन हासिल है, जो लोकसभा चुनाव के दौरान खुद की अनदेखी के लिए राहुल को मजा चखाना चाहते हैं। दरअसल कांग्रेस के भीतर की लड़ाई तब सामने आई जब पूर्व पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा कि वह लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता के लिए राहुल गांधी के नाम का समर्थन करते हैं। मोइली ने यह भी कहा कि हमने पार्टी के असंतुष्टों की कमलनाथ को हमारे ऊपर थोपने की कोशिश का विरोध करने का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि अगर चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी पार्टी का चेहरा थे तो उन्हें नेता विपक्ष क्यों नहीं होना चाहिए? क्या इससे यह संदेश नहीं जाएगा कि जैसे हमने अपने नेता को किनारे कर दिया है क्योंकि वह उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। उधर कांग्रेस की युवा ब्रिगेड के कुछ नेता कमलनाथ का नाम आगे बढ़ाने को पार्टी के कुछ ऐसे असंतुष्टों की साजिश करार दे रहे हैं जो राहुल को बदनाम कर उनकी छवि को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि केवल 44 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस खुद के दम पर नेता विपक्ष का पद हासिल करने की स्थिति में है ही नहीं। अगर लोकसभा अध्यक्ष पूरे यूपीए को एक गुट मान लें तो ही ऐसा सम्भव हो सकता है। यूपीए के 56 सांसद हैं। चुनाव जीतने की स्थिति में जो कांग्रेस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी उसने हारने पर सोनिया गांधी को संसदीय दल का नेता चुन लिया।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी को भारत की तस्वीर ही नहीं तकदीर भी बदलनी होगी

परिवर्तन की लहर पर सवार नरेन्द्र मोदी ऐसे समय में भारत के प्रधानमंत्री बन रहे हैं जब तमाम देशवासी परेशान हैं, चिंतित हैं। मार्च में जारी एक सर्वे में बताया गया है कि 70 प्रतिशत भारतीय देश की दिशा से असंतुष्ट हैं। वे महंगाई, बेरोजगारी और सरकार के कामकाज को लेकर चिंतित हैं। मोदी और भाजपा को वोट देने वाले करोड़ों मतदाता चाहते हैं कि देश के सामने से अंधकार छटे और उम्मीद की किरण के रूप में आए नरेन्द्र मोदी उनको इन समस्याओं से निजात दिलवा दें। इसके लिए अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करना बहुत जरूरी है। उम्मीद है कि मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दों को हल करने का आश्वासन दिया है। कांग्रेस पार्टी की हार के मुख्य कारण रहेöबढ़ती महंगाई, डगमगाती अर्थव्यवस्था और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों से संबंधित घोटाले। लेकिन मतदाता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी की घिसी-पिटी अभिजात्य राजनीति से ऊब गए थे। इस चुनाव में पहली बार वोट डालने वाले करोड़ों युवाओं के लिए विरासत या किसी सियासी खानदान के प्रति वफादारी से अधिक महत्वपूर्ण परफार्मेंस था। लोगों ने इस चुनाव में वंशवाद को पूरी तरह खारिज कर दिया। जिस प्रकार से मोदी का विरोध हो रहा है उससे इतना तो साफ है कि उन्हें सभी वर्गों का समर्थन अब भी हासिल नहीं है। बेशक मोदी ने अपने भाषणों में कहीं भी हिन्दुत्व को मुद्दा नहीं बनाया पर उनकी छवि के कारण देश के अल्पसंख्यक वर्ग में मोदी की दहशत जरूर पैदा हो गई है। मुसलमानों, गैर-मुसलमानों सहित देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों को यह डर है कि मोदी की सरकार हिन्दुत्व को बढ़ाएगी जिससे धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ सकता है। उनके आलोचक यह भी सोचते हैं कि उनके नेतृत्व की निरंकुश शैली को मधुर भाषा में निर्णायक नेता के रूप में पेश किया जाता है। 16वीं लोकसभा चुनाव में पहली बार मतदान करने वाले 2.31 करोड़ युवा मतदाताओं में से 39 प्रतिशत युवाओं ने मोदी को वोट दिया। उन्होंने यह वोट अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए दिया है। उन्हें उम्मीद है कि मोदी अर्थव्यवस्था को सुधारेंगे ताकि उन्हें बेहतर रोजगार के अवसर मिल सकें। मोदी की सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना है। 2005 से 2007 के बीच भारत की विकास दर 9 प्रतिशत थी। अब यह बमुश्किल 5 प्रतिशत है। भारत में हर वर्ष लाखों नौकरियों की जरूरत है। फुटकर महंगाई की दर 8.6 प्रतिशत है और वित्तीय घाटा आसमान छू रहा है। यूपीए-2 ने ऐसी उल्टी-सीधी स्कीमें चालू कर खजाने को खाली कर दिया है। देश को कांग्रेस की अक्षमता और आर्थिक सुधारों को ठीक से लागू न करने की सजा भुगतनी पड़ी। मोदी का आगे का रास्ता कठिन है और कांटों भरा जरूर है। अर्थव्यवस्था को खुलने में थोड़ा समय तो लगेगा। मोदी की शुरुआत तो अच्छी रही। सार्प देशों के अध्यक्षों को शपथ ग्रहण समारोह में बुलाकर अपनी भावी विदेश नीति की दिशा अंकित करने का प्रयास किया है। पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ के समारोह में शामिल होने से एक नई उम्मीद जगी है पर आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार का भविष्य काफी हद तक टिका हुआ है। आज भी भारतीयों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान सबसे बड़ी प्राथमिकताएं हैं।

Sunday 25 May 2014

मोदी के भय से 20 साल बाद धुर विरोधी लालू से हाथ मिलाया

राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। स्थायी होता है तो वह है स्वार्थ। राजनीति में खासकर भारत में कुछ भी हो सकता है। नरेन्द्र मोदी की बढ़ती ताकत के भय से करीब दो दशक तक एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव से नीतीश कुमार ने हाथ मिला लिया है। लालू प्रसाद यादव के राज के खिलाफ ही नीतीश कुमार ने जनता दल (यू) ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मोर्चा बनाया था और राष्ट्रीय जनता दल के कुशासन को मुद्दा बनाकर लालू प्रसाद यादव को अपदस्थ किया था। किसी वक्त में लालू और नीतीश दोनों जनता दल में साथ थे, उसके बाद दोनों विरोधी खेमों में चले गए और अब करीब 20 साल बाद फिर दोनों साथ हो गए हैं। लालू के समर्थन से नीतीश के उत्तराधिकारी बिहार के नए मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने विधानसभा में विश्वास मत जीत लिया है। माना तो यह जा रहा है कि लोकसभा चुनावों के बाद अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए दोनों दलों के पास बेहद सीमित विकल्प बचे थे। ऐसे में भाजपा को रोकने और अपने-अपने कुनबों को सुरक्षित रखने के लिए दोनों के पास साथ आने के अलावा कोई चारा नहीं था। दोनों दलों के साथ आने की चर्चा तो चुनाव बाद ही शुरू हो गई थी, लेकिन इसका रास्ता निकाला नीतीश ने। उन्होंने इस्तीफा देकर महादलित समुदाय के जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। दलित समुदाय के नेता को समर्थन देने के नाम पर राजद ने भी तुरन्त दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा दिया। ऐसी भी खबरें आ रही थीं कि लोकसभा चुनावों में तगड़ी हार के बाद जनता दल (यू) के कई विधायक विद्रोह के मूड में हैं। पार्टी में ऐसे नेताओं की संख्या काफी है जो यह मानती है कि नीतीश ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर एक गलत फैसला किया। जनता दल (यू) और भाजपा की मिलीजुली सरकार में तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त था और शायद लोकसभा चुनाव साथ में लड़ते तो भी अच्छी सीटें मिल सकती थीं। लेकिन नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के खिलाफ अच्छा-भला चलता गठबंधन तोड़ दिया। लालू यह जानते हैं कि उनके समर्थन के बिना जनता दल (यू) की सरकार के ज्यादा दिन चलने की संभावना नहीं थी। अगर यह गिरती है तो तुरन्त चुनाव होते हैं तो मोदी लहर के असर में भाजपा सबसे बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। यह गठबंधन सियासी मजबूरी की वजह से बना है। यही नीतीश कुमार ने लालू के कथित `जंगलराज' के खिलाफ मोर्चाबंदी करके ही कामयाबी हासिल की थी। दोनों दलों में समाज के कुछ वर्गों खासकर मुस्लिम वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा भी है, लेकिन नीतीश कुमार ने भाजपा से रिश्ता तोड़कर अपनी भावी राजनीति की दिशा साफ कर दी है कि वे अतिपिछड़ों, महादलितों और अल्पसंख्यकों में अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। ऐसे में लालू और नीतीश एक-दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं और प्रतिद्वंद्वी भी। यह गठबंधन महज स्वार्थ और अस्तित्व बचाने के लिए बना है और यह कितने दिन टिक पाता है, यह देखने की बात होगी। 237 सदस्यीय बिहार विधानसभा में जद (यू) के 117 विधायक, राजद 21, कांग्रेस चार, माकपा एक, निर्दलीय दो और भाजपा के 88 विधायक हैं। इससे नीतीश कुमार के नैतिकता व सिद्धांतों की पोल तो खुल हो गई है साथ-साथ वह अकेले मोदी से नहीं लड़ सकते, यह संकेत भी साफ हैं।

-अनिल नरेन्द्र

इन आतंकियों के दुस्साहस की पराकाष्ठा का करारा जवाब देना होगा

प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री नरेन्द्र मोदी को एक क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। यह है आतंकवाद और हिंसात्मक सियासत आतंकवाद। पहली श्रेणी में तो यह जेहादी गुट आते हैं जिन्हें पाकिस्तान पूरा समर्थन दे रहा है चाहे वह भारत के अंदर हों या बाहर। दूसरी श्रेणी में नक्सली आते हैं जो अलग कारणों से मौत का तांडव मचाए रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार के सत्ता में आने से पाकिस्तान दहशत में है पर देश के अंदर इन जेहादी आतंकियों के साहस आसमान छू रहे हैं। दरअसल पिछले 10 वर्षों से उनका सामना एक कमजोर, इच्छाशक्तिविहीन संप्रग सरकार से हुआ और उन्हें विश्वास हो गया कि कुछ ठोस करना तो दूर रहा यह सरकार तो वोट बैंक के चक्कर में हमारी मदद ही करती है। इसी कमजोर नीति का नतीजा है कि भोपाल की अदालत में पेशी के बाद स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के आतंकियों ने जिस तरह देश के भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध आपत्तिजनक नारेबाजी की वह उनके  दुस्साहस की पराकाष्ठा है। यह घटना तब हुई जब प्रतिबंधित सिमी के गिरफ्तार आतंकियों को पेश करने के बाद जेल परिसर में खड़ी वैन की तरफ ले जाया जा रहा था। तभी खांडवा जेल से फरार आतंकी अबु फैजल ने मोदी के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। पुलिस ने बताया कि उसने नरेन्द्र मोदी को धमकी देते हुए नारे लगाए `अब की बार मोदी का नंबर है।' इसके अलावा इन सिमी आतंकियों ने यह भी नारे लगाए कि `दुनिया की एक ही ताकत अल्लाह है, तालिबान आएगा और नरेन्द्र मोदी जाएगा और अब की बार मोदी की बारी है।' जिन सिमी आतंकवादियों को अदालत में पेश किया गया था उनमें खांडवा जेल से फरार अबु फैजल, जिसे बाद में बडवानी के निकट पकड़ा गया था, अकील खिलजी, रकीब सादिक हबीब, इसरार, खालिद अहमद, इरफान नागौरी, अब्दुल अजीज, अब्दुल वाहिद, मोहम्मद खालिद, अब्दुल माजिद व जुबेर शामिल थे। वैसे देश वोट के माध्यम से इन भभकियों और उनके आकाओं को करारा जवाब तो दे चुका है पर मोदी सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह इस ओर विशेष ध्यान दे। मेरी राय तो यह है कि फिर से आंतरिक सुरक्षा का अलग मंत्रालय बनाया जाना चाहिए जो विभिन्न इंटेलीजेंस व सुरक्षा एजेंसियों में बेहतर तालमेल स्थापित करे। एनआईए जैसी बकवास एजेंसी को या तो ओवर हॉल करके प्रभावी बनाया जाए या फिर इसे समाप्त करके नई फोर्स तैयार की जाए। आईबी, रॉ व अन्य इंटेलीजेंस एजेंसियों में रिक्त स्थानों को भरा जाए और फील्ड स्टाफ बढ़ाया जाए। मुखबिर की स्कीम को फिर से प्रभावी बनाया जाए। यह सब गृहमंत्रालय के अधीन प्रभावी ढंग से नहीं हो सकता। जरूरत इस बात की भी है कि पाकिस्तान को कड़ा स्पष्ट संदेश दिया जाए कि अगर उसकी धरती का इस्तेमाल इन जेहादी गुटों ने किया तो भारत कड़ा जवाब देगा। सीमा पर सेना व अर्द्धसैनिक बलों को जवाबी कार्रवाई करने की खुली छूट दी जाए। मोदी शासन को पाकिस्तान को यह समझाना होगा कि अगर उसकी धरती से आए आतंकियों ने चाहे वह किसी देश में क्यों न हों, हमारे जवानों के फिर सिर काटे तो भारत मूकदर्शक नहीं बना रहेगा, भारत ईंट का जवाब पत्थर से देगा।

Saturday 24 May 2014

आ बैल मुझे मार ः अरविन्द केजरी बवाल


आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविन्द केजरीवाल ने बुधवार को जिस तरह पटियाला हाउस मेट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट गोमती मनोचा की अदालत में व्यवहार किया उस पर हमें तो कतई आश्चर्य नहीं है। पहले बता दें कि अदालत में हुआ क्या? केजरीवाल बुधवार को आरोपी के रूप में कोर्ट में पेश हुए। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन पर मानहानि का केस कर रखा है। गडकरी ने आरोप लगाया है कि केजरीवाल की भारत के `सर्वश्रेष्ठ भ्रष्ट' लोगों में उनका नाम होने और केजरीवाल के झूठे बयानों से उनकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची है। केजरीवाल के वकीलों ने अपने मुवक्किल द्वारा लगाए गए आरोपों का तो न कोई जवाब दिया और न ही अपनी दलील में कोई सबूत ही दिया। उलटा मजिस्ट्रेट से जमानत बांड पर भिड़ गए। मजिस्ट्रेट गोमती मनोचा की अदालत में केजरीवाल की तरफ से सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण व राहुल मेहरा ने कहा कि यह मामला राजनीतिक है और आम आदमी पार्टी (आप) के सिद्धांत के अनुसार वे जमानत के लिए मुचलका नहीं भरेंगे। लेकिन इस बात का हलफनामा देने के लिए तैयार हैं कि वह अदालत के आदेश का पालन करते हुए हर तारीख पर अदालत में पेश होंगे। इस पर विरोध करते हुए गडकरी की तरफ से सीनियर एडवोकेट पिंकी आनंद व अजय दिगपाल ने कहा कि कानून में हलफनामा देने की कोई प्रक्रिया नहीं है और कानून किसी के लिए अलग नहीं हो सकता। यह बात तब सामने आई जब अदालत ने केजरीवाल से जमानत के लिए दस हजार रुपए का निजी मुचलका जमा करने को कहा। जिस पर केजरीवाल ने मुचलका भरने से इंकार करते हुए कहा कि वह कोई अपराधी नहीं हैं कि मुचलका भरें। अदालत ने कहा कि जब आप एक आदमी की बात करते हैं तो हम यही उम्मीद करते हैं कि आप एक आम आदमी की तरह ही व्यवहार करें, प्रक्रिया सबके लिए समान होनी चाहिए। अदालत ने कहा कि कानून के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अदालत की प्रक्रिया का पालन नहीं करता तो इस हालात में अदालत आरोपी को हिरासत में भेजने पर विवश होगी। अदालत ने अपने तीन पृष्ठों के फैसले में कहा कि अदालत इस हालत में मूकदर्शक नहीं बनी रह सकती जब कोई आरोपी द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन नहीं करना चाहता। अदालत का यह विचार भी था कि मुचलका भरने में आरोपी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि पेश मामले में दस हजार रुपए की राशि जमा करने में सक्षम है। इस तरह केजरीवाल ने मजिस्ट्रेट के सामने कोई और विकल्प नहीं छोड़ा और उन्होंने मजबूरन केजरीवाल को तिहाड़ भेज दिया। थूक कर चाटना, पलटी खाना अरविन्द केजरीवाल की खासियत बन चुकी है। यह नया स्टंट या ड्रामा आखिर क्यों हो रहा है? आम आदमी पार्टी (आप) उपराज्यपाल को विधानसभा भंग नहीं करने के लिए अपने पत्र से महज चंद घंटे बाद ही पलटी खा गए। पहले तो केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से माफी मांगी। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना उनकी गलती थी। उन्होंने जनता से पूछे बिना यह फैसला लेने पर अफसोस जताया और कहा कि अब अगले चुनाव की तैयारी के दौरान वह सभाओं के जरिए लोगों तक अपनी यह भावना पहुंचाएंगे। लेकिन इससे पहले केजरीवाल ने दोबारा दिल्ली में सरकार बनाने की भरसक कोशिश की। इस संबंध में उन्होंने उपराज्यपाल नजीब जंग को चिट्ठी तक लिख डाली। तुर्रा यह है कि चिट्ठी के बारे में उन्होंने मीडिया को जानकारी तक नहीं दी। जब वह उपराज्यपाल से मिलकर निकले तो मीडिया से बस इतना कहा कि उन्होंने शिष्टाचार मुलाकात की। लेकिन देर रात उपराज्यपाल को भेजी चिट्ठी लीक हो गई। तब जाकर केजरीवाल की पोल खुली कि उन्होंने उपराज्यपाल से कुछ मोहलत  मांगी थी ताकि सरकार बनाने की उनकी कोशिशों पर परवान चढ़ाया जा सके। लेकिन कुछ ही घंटों बाद केजरीवाल को यह अहसास हो गया कि सरकार बनाना मुमकिन नहीं है। यह देखते हुए हारकर केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव की मांग की। कई लोगों के जहन में यह सवाल उठ रहा है कि 40 हजार रुपए महीने के मकान में रहने वाले केजरीवाल ने दस हजार रुपए का मुचलका क्यों नहीं भरा? ठीक 24 घंटे बाद उनके करीबियों में से एक योगेंद्र यादव ने धारा 144 तोड़ने के केस में 5000 रुपए का निजी मुचलका भर दिया। क्यों केजरीवाल ने जेल जाना मंजूर किया? हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की करारी हार हुई है और दिल्ली की सातों सीटों पर उसे हार का मुंह देखना पड़ा है। केजरीवाल की लोकप्रियता तेजी से घट रही है। केजरीवाल ने जमानत न लेकर जेल जाना इसलिए चुना क्योंकि पहली बात तो वह पब्लिसिटी के भूखे हैं। नरेंद्र मोदी ने उसी दिन गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था पर केजरीवाल ने ड्रामा करके अपने आपको चैनलों व प्रिंट मीडिया में छाए रहने का यह बहाना ढूंढा। कहा जा रहा है कि वे जेल जाकर जनता की हमदर्दी हासिल करना चाहते हैं, कार्यकर्ताओं में नया शिगूफा छोड़कर जोश भरना चाहते हैं। अरविन्द केजरीवाल सियासी तौर से इतने बुरे शायद ही कभी फंसे हों। सियासी गलियारों में हलचल मचाने वाले केजरीवाल को लगा कि यह स्टंट करने से उन्हें दिल्ली में चुनावी फायदा हो सकता है। केजरीवाल ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि वह यह संदेश फैलाएं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की वजह से ही केजरीवाल को जेल भेजा गया। पार्टी के नेता मान रहे हैं कि अब वे फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे को फोकस करने में सफल होंगे। जिस तरीके से आप समर्थकों ने तिहाड़ जेल के बाहर हो-हल्ला किया उससे साफ है कि यह प्री-प्लांड ड्रामा था। केजरीवाल पब्लिसिटी के इतने भूखे हैं कि तिहाड़ जेल में रात बिताने के बाद सुबह उठते ही पहला काम यह किया कि अखबार मांगे। प्रशासनिक सूत्रों के अनुसार खुद के जेल जाने, उसके बाद देर रात तक तिहाड़ जेल के बाहर चले आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं के विरोध प्रदर्शन की कवरेज देखने के उत्सुक थे। मजेदार बात यह है कि चार हमलों के बाद चार सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केरीवाल को जेल नम्बर चार में ही रखा गया। उसी जेल में रखा गया जिसमें उनके गुरू अन्ना हजारे को 2011 में रखा गया था। पब्लिसिटी स्टंट भी हो सकता है पर केजरीवाल ने कई बार कहा है कि वह भारत के संविधान, व्यवस्था के खिलाफ हैं और पूरा ढांचा बदलने में विश्वास करते हैं। जब वह 49 दिनों के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री थे तब भी उन्होंने धारा 144 तोड़कर देश की कानून व्यवस्था को चुनौती दी थी। अब भी उसी क्रम में जमानत के लिए मना कर कानून व्यवस्था से सीधी टक्कर ली है। उन्होंने खुद कहा था कि अराजक हूं, आईएमएन एनार्किस्ट। केरीवाल अपने तय एजेंडे पर चल रहे हैं पर उनका दुर्भाग्य यह है कि वह जनता में  बुरी तरह एक्सपोज हो चुके हैं, उनकी विश्वसनीयता व सियासी साख जीरो हो चुकी है। एक बार उन्होंने दिल्ली की जनता को बेवकूफ बना दिया पर बार-बार जनता बेवकूफ बनने को तैयार नहीं। इस ड्रामे से कोई फर्प पड़ने वाला नहीं है। जनता का मोहभंग हो चुका है।
-अनिल नरेन्द्र


Friday 23 May 2014

अगर दिल्ली में कोई सरकार नहीं बनी तो अक्तूबर में हो सकते हैं विधानसभा चुनाव

मोदी लहर से भाजपा ने केंद्र में परचम लहराया तो अब दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के दिन खत्म होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं। शहर की सभी सातों सीटों पर मिली जोरदार विजय से उत्साहित साथ ही लोकसभा की 60 विधानसभा सीटों पर जीतने के बाद भाजपा का एक खेमा छाती ठोंक कर चुनाव मैदान में उतारने की वकालत कर रहा है जबकि कुछ नेता चाहते हैं जनता को एक और चुनाव में झोंकने से बेहतर है कि पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने की पहल करे। यह दीगर बात है कि दिल्ली विधानसभा के वर्तमान आंकड़ों को देखते हुए यह साफ है कि बगैर जोड़तोड़ किए भाजपा दिल्ली में अपनी सरकार नहीं बना पाएगी। पिछले साल दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा-अकाली गठबंधन के 32, आम आदमी पार्टी को 28 और कांग्रेस को आठ सीटें मिली थीं। दूसरी ओर जद (यू) को एक और एक सीट निर्दलीय प्रत्याशी को मिली थी। स्पष्ट बहुमत नहीं होने से भाजपा ने सरकार बनाने से हाथ खड़े कर दिए थे और करीब 20 दिन तक चले राजनीतिक ड्रामे के बाद कांग्रेस के सहयोग से केजरीवाल सरकार का गठन हुआ और यह सरकार 49 दिन ही चल सकी। अब जबकि भाजपा के तीन विधायक डॉ. हर्षवर्धन, रमेश बिधूड़ी और प्रवेश वर्मा लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं तो साफ है कि भाजपा-अकाली गठबंधन के सदस्यों की संख्या 29 रह जाएगी। 70 सदस्यों की विधानसभा में अब बहुमत का फैसला 67 सदस्यों के आधार पर होगा। भाजपा को कम से कम 34 विधायकों की जरूरत होगी। जाहिर तौर पर उसे पांच विधायकों की तत्काल जरूरत है। ये विधायक आएंगे कहां से? इस बीच चर्चा यह भी है कि आम आदमी पार्टी के अधिकतर विधायक जल्द विधानसभा चुनाव के पक्ष में नहीं हैं। उन्हें डर है कि अगर जल्द विधानसभा चुनाव हो गए तो उन्हें हार का सामना करना पड़ सकता है। इसी डर के चलते आम आदमी पार्टी टूटने के कगार पर है। आप के कुछ विधायक चाहते हैं कि कांग्रेस न सही तो भाजपा से ही गठबंधन कर लिया जाए और चुनाव  से बचा जा सके। संभावना यह भी बन रही है कि विधायकों का यह गुट इस मसले पर पार्टी छोड़कर भाजपा से हाथ मिलाने को आतुर है। आप से निष्कासित लक्ष्मीनगर के विधायक विनोद कुमार बिन्नी ने सोमवार को कहा कि दिल्ली को विधानसभा चुनाव से बचाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने भाजपा प्रदेशाध्यक्ष डॉ. हर्षवर्धन और अरविंद केजरीवाल को एक पत्र भी लिखा है। उन्होंने कहा कि अगर भाजपा पहल करे तो आप के कई विधायक उनका समर्थन करने को तैयार हैं। बिन्नी ने कहा कि आप की राजनीति खत्म हो चुकी है। देश की जनता ने आप नेतृत्व को आइना दिखा दिया है। दिल्ली के लोग भी नहीं चाहते कि प्रदेश में आप की सरकार बने। राजधानी में पिछले दो दिनों से यह खबर खासी गरम है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर फिर से राजधानी में सरकार बनाना चाह रहे हैं पर फिलहाल दोनों आप और कांग्रेस नेतृत्व ऐसी किसी संभावना को खारिज कर रहा है। दिल्ली में तीनों प्रमुख दल भाजपा, आप और कांग्रेस द्वारा मध्यावधि चुनाव के विकल्प पर सहमति जताने के बाद अब इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि दिल्ली में अगर कोई सरकार न बनी तो आखिरी विकल्प दोबारा विधानसभा चुनाव ही होगा। यह चुनाव कब मुमकिन होगा? चुनाव आयोग के नियमों को देखते हुए इस प्रक्रिया में कम से कम तीन महीने लगने के कारण आगामी अक्तूबर में हरियाणा सहित अन्य राज्यों में संभावित चुनाव के साथ दिल्ली में भी चुनाव कराने की अटकलें तेज हो गई हैं। दिल्ली चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि लोकसभा चुनाव के बाद कम से कम 45 दिनों तक ईवीएम के इस्तेमाल की बाध्यता को देखते हुए अगले डेढ़ महीने तक दिल्ली के चुनाव की घोषणा मुमकिन नहीं है। इतना ही नहीं, चुनावी तैयारियों के लिए कम से कम दो महीने का समय दिया जाना जरूरी है। नियमों की इन दो बाध्यताओं के मद्देनजर जुलाई तक चुनाव कराना मुमकिन नहीं होगा। नियमों की मजबूरियों को देखते हुए अब गेंद केंद्र सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल के पाले में होगी। सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली विधानसभा के भविष्य का फैसला उपराज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया है। ऐसे में राजनिवास और केंद्र की नई सरकार ही इस गुत्थी का हल निकालेंगे। देखें, बिना चुनाव कराए कोई दल सरकार बनाने के लिए निकलता है या एक बार फिर दिल्ली में विधानसभा चुनाव होंगे?

-अनिल नरेन्द्र

परिपक्व, जवाबदेही और भावुक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने के रोमांच और इसके ऐतिहासिक महत्व की चर्चा वैसे तो 16 मई के परिणाम आने से ही शुरू हो गई थी पर इस चर्चा ने तब एक गहन अनुभूति और विश्वास की शक्ल अख्तियार कर ली जब नरेंद्र मोदी औपचारिक रूप से भाजपा संसदीय दल और फिर राजग के सर्वसम्मत नेता चुने गए। हालांकि हमने बड़े-बड़े नेताओं के मुंह से यह जुमलेबाजी कई बार सुनी है कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है पर मंगलवार को जब देश और दुनिया ने देखा कि भारत का भावी प्रधानमंत्री संसद के भीतर पैर रखने से पहले उसके द्वार पर अपना माथा टेकता है तो इससे भारतीय लोकतंत्र के प्रति भरोसे और प्रतिबद्धता के एक सर्वथा नए युग की शुरुआत हो गई। संसद के केंद्रीय कक्ष में मंगलवार को उमंग थी, चौतरफा लहराती भावनात्मक तरंगों के  बीच संसदीय दल का नेता चुने जाने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने शासन और राजनीति के अपने एजेंडे को भावुकता की बयार में बहने नहीं दिया। अपनी भावुकता को काबू में रखते हुए मोदी ने न सिर्प अपने शासन की भावी तस्वीर खींची बल्कि राजनीतिक नैतिकता का नया मानक तय करने और राजनीति की धारा बदलने के अपने इरादे भी साफ जाहिर कर दिए। भाजपा और राजग संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद अब नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री पद की शपथ लेना भर शेष है। राष्ट्रपति से सरकार बनाने का निमंत्रण हासिल करने के साथ ही वह मनोनीत प्रधानमंत्री बन गए हैं। एक तरह से मोदी युग का आरम्भ हो गया है। बेशक भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने के दौरान मोदी जिस तरह से भावुक हो उठे उससे दुनिया ने उनका एक नया रूप देखा। एक मजबूत शासक की छवि वाले नेता का ऐसा रूप देखना दुर्लभ क्षण था। उनकी संवेदनशीलता उनके भाषण में भी झलकी और खासकर तब जब उन्होंने कहा कि सरकार गरीबों, युवाओं और मान-सम्मान के लिए तरसती मां-बहनों को समर्पित है। इस दौरान वह अपने भाषण में अपनी प्राथमिकताओं का उल्लेख करना भी नहीं भूले। फिलहाल मंगलवार को नरेंद्र मोदी ने अपने खास अंदाज में पांच बड़े सवालों पर अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। सरकार के पांच साल का एजेंडा इसी  परिधि से लागू होगा। अंदाज में संघ की विचारधारा, वाजपेयी का मॉडल और मोदी का अपना अंदाज तीनों शामिल हैं। संसद को नमन ः संसद में बैठे लोगों के प्रति आम लोगों की धारणा ठीक नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में इसे नाकारा लोगों का अड्डा भी कहा गया है। मोदी ने संसद भवन की सीढ़ियों पर माथा टेक कर यह संदेश दिया कि उनकी सरकार के लिए संसद सही अर्थों में लोकतंत्र का मंदिर होगा और सभी सांसदों को उसके प्रति श्रद्धा रखनी होगी। भावुकता ः मोदी भावुक हुए। आडवाणी यह कह चुके थे कि जो व्यक्ति भावुक होता है वह अपनी आलोचना और अत्याधिक खुशी से रो पड़ता है। मोदी की पिछले 12 वर्षों से लगातार तीखी आलोचना होती रही। सभी विपक्षियों ने उन पर निशाना साधा। लोकसभा चुनाव में सफलता के  बाद भी मोदी की आंखों में खुशी के आंसू नहीं आए। ऐसे में मोदी की पत्थर दिल होने की जो छवि बनी हुई है उसे आंसुओं के जरिए उन्होंने धोने की कोशिश की। पूर्वाग्रह मुक्त ः मोदी ने अपने भाषण में पिछली सरकारों की आलोचना नहीं की बल्कि कहा कि पिछली सरकारों ने देश को आगे ले जाने के लिए अपने तरीके से काम किया। वह (मोदी) अपने तरीके से काम करेंगे। इसके जरिए नरेंद्र मोदी ने साफ किया कि उनका फोकस विकास होगा। उनकी सरकार पिछली सरकारों के खिलाफ मुद्दा खोलकर समय जाया करने पर फोकस करने की जगह काम पर ध्यान लगाएगी। फोकस क्षेत्र ः मोदी ने भाषण के दौरान गरीब, युवा और महिलाओं के लिए सरकार को समर्पित भाव से काम करने का ऐलान किया। चुनाव के दौरान यूथ पर मोदी का फोकस रहा था। अर्थात संघ और संगठन के लिहाज से उन्होंने 2019 के लिए वोट बैंक को साधने का टारगेट सेट कर दिया है। इसमें जाति-धर्म से ऊपर गरीब, युवा और महिलाओं को शामिल किया है। भाजपा के अंदर और बाहर मोदी के आलोचक उन पर आरोप लगाते रहे कि वह सभी के साथ काम करने के आदी नहीं हैं। वह डिक्टेटर की तरह काम करते हैं इसलिए उनके पीएम बनने पर भाजपा के अन्य नेता हाशिए पर चले जाएंगे, जैसा गुजरात में हुआ। मोदी ने अपनी इस छवि को यह कहते हुए साफ किया कि एनडीए के सहयोगी उनके लिए उतने ही महत्वपूर्ण अभी भी हैं जितने भाजपा को बहुमत नहीं मिलने पर रहते। इससे लगता है कि एनडीए के सभी 29 दल सरकार चलाने में शामिल होंगे। अंत्योदय विचार के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्मरण करते हुए यह भी साफ किया मोदी ने अब उनके लिए अपने विचारों को जमीन पर उतारने का वक्त आ गया है। देश के लिए यह संतोषप्रद है कि उसका भावी प्रधानमंत्री सबकी उम्मीदों पर खरा उतरना चाहता है। इस पूरे उद्बोधन में नरेंद्र मोदी पर लगे सारे आरोपों के विपरीत एक परिपक्व, विनम्र और जवाबदेह अवतार में नजर आए। दरअसल उनका यह आशावाद ही है, जो समकालीन नेताओं से उन्हें अलग कर देता है। बेहद मामूली पृष्ठभूमि से निकलकर वह आज उस मुकाम पर पहुंचे हैं जहां से वह देश को एक नई दिशा दे सकते हैं।

Thursday 22 May 2014

नीतीश का नाटक मोदी की आलोचना भारी पड़ी

लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने जिन पार्टियों के सपने चकनाचूर कर दिए उनमें जद(यू) भी है। उसे सिर्फ दो सीटें मिल सकीं जबकि पिछली लोकसभा में उसके पास 20 सांसद थे। इन पिटी हुई पार्टियों में आजकल इस्तीफों का अनुष्ठान चल रहा है। दरअसल नतीजों के रूप में आए जनादेश में नरेंद्र मोदी के पति पबल जन विश्वास तो झलक ही रहा है, उससे ज्यादा संकेत उन ताकतों को खारिज करने का है जो धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मोदी को देश के लिए खतरा नंबर वन बता रही थीं। इसलिए इतने व्यापक जनादेश के बाद अब इनके पास तर्क गढ़ने के लिए भी मसाला नहीं बचा है। मोदी का विरोध करने वाले नीतीश कुमार इसी श्रेणी में आते हैं। नीतीश कुमार ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। लोकसभा चुनाव में तो नीतीश की गत हुई सो हुई, विधानसभा की पांच सीटों पर हुए उपचुनाव में भी जद(यू) को मात्र एक सीट मिली। दरअसल भाजपा से रिश्ता तोड़ने के अपने फैसले के कारण लंबे समय से वह पार्टी के भीतर आलोचना के घेरे में थे। सरकार चलाने के लिए जिन निर्दलीय विधायकों का नीतीश कुमार ने समर्थन लिया था वे भी मंत्रीपद न मिलने के कारण उनसे क्षुब्ध थे। बताया यह भी जाता है कि पाटी का एक वर्ग भाजपा के साथ मिलकर फिर सरकार बनाने का इच्छुक है। रही-सही कसर पाटी अध्यक्ष शरद यादव ने नीतीश की आलोचना करके पूरी कर दी। नीतीश के इस्तीफे को बिहार के भाजपा नेताओं और उनके सहयोगी लोजपा ने नीतीश कुमार के इस्तीफे को पहले से तैयार नाटक बताया है। यह सिर्फ नीतीश ने जद(यू) में अपना नेतृत्व बचाने के लिए किया है। रामविलास पासवान ने दावा किया कि जद(यू) सरकार जल्द गिर जाएगी और बिहार में आने वाले महीनों में ताजा चुनाव हेंगे। यह इस्तीफा एक नाटक है। बिहार में लोकसभा चुनाव में जद(यू) के सफाए के बाद नीतीश का नेतृत्व खतरे में था। उन्होंने कहा कि नीतीश अच्छा अभिनेता हैं और नाटक में उन्हें विशेष पशिक्षण हासिल है। वह लोगों का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें अलग कर देते हैं। वह बिना सत्ता के उसी तरह हो जाते हैं जैसे बिना पानी के मछली। सवाल उठ सकता है कि वे (नीतीश) पाटी के अध्यक्ष नहीं थे और चुनाव लोकसभा के थे, फिर उन्हें यह कहने की क्या जरूरत थी। दरअसल नीतीश ने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है। मोदी विरोध की बिना पर सालभर पहले भाजपा से गठबंधन तोड़ने का निर्णय पाटी के भीतर कई लोगों को रास नहीं आया था। मोदी के खिलाफ इतना कुछ बोलने के बाद अब बतौर बिहार के मुख्यमंत्री पधानमंत्री मोदी के सामने क्या मुंह लेकर जाते। खबर है कि जीतन राम मांझी बिहार के नए मुख्यमंत्री होंगे। भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद से जद(यू) की सरकार नाजुक बहुमत के सहारे टिकी रही है। ऐसे में पाटी लालू पसाद यादव का पत्यक्ष या परोक्ष सहयोग पाने की तजबीज कर सकती है। दरअसल यह दोनों की मजबूरी होगी क्योंकि अभी दोनों चाहेंगे कि विधानसभा चुनाव की नौबत न आने पाए। बिहार में करारी हार के बाद अपनी सरकार गिरने के डर से नीतीश कुमार के इस्तीफा देने के पीछे उनका अहम भी है। एक ऐसे सूबे का मुख्यमंत्री होना जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ा है उनके लिए परेशानी का सबब बन गया। उनको लगातार केंद्र की तरफ मुंह बाए खड़ा होना पड़ता और वह ऐसा उस व्यक्ति के आगे नहीं करना चाहते थे जिसको उन्होंने वोट बैंक के कारण अपमानित किया, मतलब पधानमंत्री नरेंद्र मोदी। 

-अनिल नरेंद्र

हार के कारण नहीं, सोनिया-राहुल को बचाने के लिए कार्य समिति की बैठक

जैसी कि उम्मीद थी, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक महज एक औपचारिकता पूरी करने और गांधी परिवार को बचाने के लिए ही बुलाई गई थी और यही हुआ भी। लोकसभा चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी हार के बाद देश-भर में कांग्रेस में उठ रहे विरोध के सुरों को देखते हुए सोमवार की कार्य समिति की बैठक का विशेष महत्व था। लोकसभा चुनाव की अब तक की सबसे बड़ी हार झेलने के बाद कांग्रेसी कार्यकर्ता पूरी तरह सदमे में हैं। कांग्रेस को जगह-जगह असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे हैं। जिन 13 राज्यों में कांगेस का खाता नहीं खुला है वहां ज्यादा घमासान शुरू हो गया है। नेता और कार्यकर्ता नाराज है। दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल पदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, गुजरात, गोवा, ओडिशा, झारखंड, त्रिपुरा, सिक्किम, नागालैंड और तमिलनाडु में पाटी का खाता तक नहीं खुल सका। चर्चा में कैसे रहें यह कांग्रेस के कुछ नेताओं को अच्छी तरह से आता है। चुनाव के बाद इलाहाबाद में हर तरफ भाजपा की जहां चर्चा चल रही थी उसी दिन कुछ कांग्रेसियों ने सिविल लाइंस स्थित सुभाष चौराहे पर विवादित बैनर लगाकर नई चर्चा शुरू कर दी। शहर के दो कांग्रेसी पदाधिकारियों ने बैनर के जरिए यह संदेश देने का पयास किया कि राहुल गांधी इस चुनाव में कांग्रेंस की नैया पार लगाने में पूरी तरह असफल रहे, सो पाटी की कमान पियंका गांधी को सौंप दी जाए। शहर कांगेस के सचिव हसीब अहमद और श्री रामचन्द्र दुबे की तरफ से लगाए गए बैनर में कहीं भी राहुल गांधी की फोटो नहीं है और न ही कोई जिक किया गया है लेकिन बैनर के जरिए पियंका गांधी को पाटी की कमान सौंपे जाने की मांग कर यह संदेश देने की कोशिश भी की गई है कि कांग्रेसियों को अब राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं। बैनर पर सोनिया और पियंका की तस्वीर है। उस पर लिखा है, जनता का संदेश सुनो, ग्राउंड जीरो से शुरुआत करो। कांग्रेस एक इंकलाब का रथ। भइया दो आदेश, पियंका बढ़ाएं कांग्रेस का कद। यूपी में अग्निपथ.....अग्निपथ..... अग्निपथ। आ जाओ पियंका, छा जाओ पियंका। इलाहाबाद का यह बैनर कमोबेश पूरे देश के कांग्रेसियों की अब भावना है। संदेश साफ है राहुल फेल हो गए हैं पर कार्य समिति में हार के कारणों की समीक्षा करने की बजाय सोनिया और राहुल की ओर से इस्तीफे की पेशकश को जिस तरह ठुकरा दिया गया उससे तो यही पता चलता है कि समीक्षा के नाम पर खानापूर्ति की गई। बैठक में जिस तरह हार के कारण जानने के लिए समितियां बनाने के संकेत दिए उससे यह साफ है कि कांग्रेस अपनी सबसे बड़ी पराजय के कारणों से मुंह चुरा रही है। महज खानापूर्ति करके यह संदेश दिया गया है कि हार के लिए न तो छानबीन की जरूरत है और न ही यह जानने की कोशिश हो कि आखिर पाटी अर्श से फर्श तक कैसे आ पहुंची। सभी जानते हैं कि चुनाव सोनिया गांधी और राहुल के नेतृत्व में लड़े गए। इन्होंने जैसी राजनीति अपनाई वही चली। जहां कांग्रेस संगठन पूरी तरह फेल हुआ वहीं मनमोहन सरकार के नाकाम शासन ने भी पाटी की लुटिया डुबाई। एक के बाद एक घोटाले और उन्हें न रोकने की कोशिश ने जनता में यह संदेश दिया कि न तो मनमोहन सिंह और न ही कांग्रेस नेतृत्व को इसे रोकने में कोई दिलचस्पी है। बार-बार चेताने के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व और सरकार पर कोई असर हुआ कि जनता महंगाई से बुरी तरह परेशान है। युवा चिल्लाते हैं कि प्यारा भविष्य अधर में हैं पर न तो मनमोहन सिंह और न ही सोनिया, राहुल ने इनकी  चीखें सुनीं। बैठक में राहुल गांधी ने कहा कि उन्हें लगता है कि पाटी में कामकाज को लेकर कोई जवाबदेही नहीं है। इस चुनाव के दौरान नेतृत्व करने में खरे न उतरने का हवाला देते हुए उन्होंने खुद से उत्तरदायित्व की शुरुआत करने का ऐलान किया। उन्होंने इस कम में इस्तीफे की पेशकश की। कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के बारे में डा. मनमोहन सिंह ने कहा कि जितना श्रम किया व संगठन चलाने का बोझ उठाया यह असाधारण है। उन्होंने कहा कि इस्तीफा समाधान नहीं है। कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने बताया कि कांग्रेस कार्य समिति ने एक राय से इस्तीफे के पस्ताव को खारिज कर दिया। कुल मिलाकर हार के कारणों की बजाय और परिणाम से सबक लेने की बजाय कांग्रेस अब खीझ उतारने में जुट गई है। जनादेश को स्वीकारना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल हो रहा है, इसे पाटी अध्यक्ष के बयान से ही समझा जा सकता है। सोनिया ने कहा कि देश में जिस तरह का वातावरण बनाया गया और समाज में धुवीकरण का पयास किया गया वह चिंताजनक है। साथ ही उन्होंने भाजपा के आकामक पचार और मीडिया में ज्यादा कवरेज को लेकर कहा कि हमारे विरोधियों ने असीमित साधानों का उपयोग किया। हालांकि उन्होंने माना कि कुछ कमी संगठन स्तर पर भी रही। हो गई हार के कारणों की समीक्षा।

Wednesday 21 May 2014

अब तेरा क्या होगा केजरीवाल?

पिछले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतकर सत्ता पर काबिज होने वाली आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है। आप के बड़े-बड़े नेता चारों खाने चित्त हो गए। पार्टी कई अवसरों पर चूक गई। आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को छोड़ दें तो पार्टी के प्रमुख चेहरे योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, शाजिया इल्मी, आदर्श शास्त्राr, गुल पनाग, मेधा पाटेकर, मयंक गांधी, मीरा सान्याल व अंजलि दमानिया जैसे दिग्गज तीसरे या चौथे स्थान पर रहे हैं। जिन दागदार उम्मीदवारों के खिलाफ आप ने उम्मीदवार उतारे, वह कहीं नहीं टिक सके। आईबीएन-7 में वरिष्ठ अधिकारी की नौकरी छोड़ बड़बोले आशुतोष भी हार गए और अब सड़क पर आ गए। दिल्ली के उम्मीदवारों को भगवान भरोसे छोड़कर केजरीवाल मोदी को हराने वाराणसी चले गए। याद है केजरीवाल के बोल, मैं वाराणसी से जीतने नहीं आया हूं मैं तो मोदी को हराने आया हूं। बनारस की जनता ने ऐसी धूल चटाई कि श्रीमान जी के होश ठिकाने आ गए। केजरीवाल ने इस चुनाव में एक और कीर्तिमान स्थापित किया है। अभी आंकड़े तो नहीं आए पर हम दावे से कह सकते हैं कि आप के सबसे ज्यादा उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है। जब कुमार विश्वास जैसा दिग्गज नेता अपनी जमानत नहीं बचा सका तो बाकियों का क्या हाल हुआ होगा, अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। दिल्ली में आप के सभी उम्मीदवार दूसरे नम्बर पर रहे। विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोट फीसद में बढ़ोत्तरी मानकर आप फौरी तौर पर इतरा रही है, लेकिन एक भी सीट न जीतने का मलाल पार्टी को बेचैन किए हुए है। ऐसे में पार्टी के भविष्य को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता अब खुलकर अपनी चूक मानने लगे हैं। दिल्ली सरकार से इस्तीफा देना आप की सबसे बड़ी भूल रही। जनता को निराशा हाथ लगी। किसी भी नेता की साख व विश्वसनीयता उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी क्या छोड़ी, पूरे लोकसभा चुनाव अभियान में वह `भगौड़े' से पीछा नहीं छुड़ा सके। हार के लिए अंदरखाते लोग केजरीवाल के सिर पर ही ठीकरा फोड़ने लगे हैं। जिस मोदी लहर को केजरीवाल सार्वजनिक तौर पर नकारते रहे हैं उनकी पार्टी के नेताओं का कहना है कि मोदी की सुनामी थी जिसको जानबूझ कर नजरअंदाज किया गया। 443 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर पार्टी ने भारी गलती की। 300 से अधिक उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने की खबर है। 100 से अधिक उम्मीदवार तीसरे या चौथे नम्बर पर रहे हैं। अरविंद केजरीवाल के अहंकार और स्वार्थ ने आप के भविष्य पर ही अब प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। एक नेता का यह कर्तव्य होता है कि जब वह 443 उम्मीदवार उतार रहा है तो कम से कम यह तो देखे कि उसकी पार्टी के उम्मीदवारों के पास बुनियादी सुविधाएं तो हों। अधिकतर उम्मीदवारों के पास चुनाव लड़ने लायक धन भी नहीं था। पार्टी ने अप्रैल माह में ऑनलाइन चंदा एकत्रित करने के लिए 443 प्रत्याशियों की अलग-अलग वेबसाइट बनाई थी जिसमें संबंधित प्रत्याशी का फोटो, विवरण और चंदे का लक्ष्य दिया गया था। पहले सभी उम्मीदवारों के लिए 40-40 लाख रुपए चंदे का लक्ष्य निर्धारित था जिसे बाद में 70 लाख कर दिया। लोकसभा चुनाव के लिए अरविंद केजरीवाल और कुमार विश्वास पर भारत के अलावा विदेश से जमकर धनवर्षा हुई। हालांकि निर्वाचन आयोग ने चुनाव में 70 लाख रुपए ही खर्च करने की सीमा तय की थी फिर भी केजरीवाल को 87 लाख, 8 हजार 163 रुपए एवं कुमार विश्वास को 34 लाख 93 हजार 344 रुपए चंदे के रूप में मिले। जबकि पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए लगभग 30 करोड़ रुपए चंदे के रूप में प्राप्त हुए। पार्टी सूत्रों के मुताबिक अभी चुनावी खर्चों का सही-सही मूल्यांकन तो नहीं किया गया है लेकिन अनुमान है कि 25 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए केजरीवाल ने ट्विट करके चंदे की मांग की थी। देखते ही देखते केजरीवाल की झोली चंदे के पैसों से भर गई और 87,08,163 लाख रुपए उनके अकाउंट में आ गए। भारत के अलावा अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान, सिंगापुर में बसे प्रवासी भारतीयों ने भी चंदा दिया। आम आदमी पार्टी ने भले ही अपने पहले लोकसभा चुनाव में चार सीटें जीत ली हों लेकिन पार्टी नेता अब खुलकर केजरीवाल के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। आप की सबसे टॉप बॉडी पोलिटिकल अफेयर्स कमेटी (पीएसी) में इल्यास आजमी ने तो यहां तक कह दिया कि एक आदमी के पार्टी का मालिक बनने से यह दुर्गति हुई है। उन्होंने तीन दिन की नेशनल काउंसिल बुलाने की मांग की है जिसमें पार्टी की दुर्गति की जिम्मेदारी तय करने की बात कही है। देखना यह है कि आम आदमी पार्टी इस सेटबैक से कैसे उभरती है?

-अनिल नरेन्द्र

मोदी की आंधी में उड़े सभी सूबेदार, क्षत्रप

2014 लोकसभा चुनावों में मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी जिससे मैं समझता हूं कि भारतीय लोकतंत्र व केंद्र को फायदा होगा। इस चुनाव में आई मोदी की आंधी में तमाम क्षेत्रीय दलों और उनके क्षत्रपों का सफाया हो गया है। उत्तर प्रदेश की सियासत की सच्चाई बन चुके सपा और बसपा जैसे ताकतवर दल न जाने कहां गायब हो गए। कुनबे की मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी कुनबे में ही सिमट गई वहीं बसपा का तो सूपड़ा ही साफ हो गया। बिहार में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, महाराष्ट्र में शरद पवार और तमिलनाडु में करुणानिधि जैसे क्षत्रपों को अपनी राजनीतिक साख बचाने के लाले पड़ गए। मुझे द्रमुक की हार पर विशेष खुशी हो रही है। याद है करुणानिधि ने सवाल पूछा था कि भगवान राम ने कौन-से विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली थी। सेतु समुद्रम परियोजना के लिए राम सेतु तोड़ने पर आमादा को भगवान राम ने ऐसा सबक सिखाया कि अब तो राजनीतिक भविष्य के भी लाले पड़ गए हैं। खुद करुणानिधि के परिवार में फूट पड़ गई है। भाई-भाई से लड़ रहा है। ऐसा होता है भगवान की इज्जत उछालने का नतीजा। विपक्षी दलों की वह हालत हुई है कि कहां तो सरकार गठबंधन से बनती थी अब लोकसभा में नेता विपक्ष बनाने के लिए किसी भी दल के पास पर्याप्त संख्या ही नहीं है। महज 57 सीटों के साथ प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाना अब कांग्रेस के लिए मुश्किल हो रहा है। लगभग 150 सीटों वाले गैर-राजग और गैर-संप्रग दल भी इतने खानों में बंटे हैं कि यहां न तो वामदलों का दबाव होगा और न ही किसी मोर्चे का। तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक जरूर सीटों की संख्या के लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन उनकी फितरत को समझने वाले जानते हैं कि मोदी सरकार से टकराव की बजाय उनके साथ मिलकर ही  चलेंगी। इसी तरह चौथे नम्बर पर रहीं ममता बनर्जी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साथ किसी भी कीमत पर खड़ी नहीं दिखना चाहेंगी। महज एक दशक पहले राष्ट्रीय फलक पर बड़ी ताकत और एक गम्भीर विकल्प बनती दिख रही वामपंथी पार्टियां इस बार कहीं नहीं हैं। वामपंथियों के दोनों प्रमुख साथी मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार व लालू प्रसाद यादव को मुंह की खानी पड़ी है। एक और खास बात इस चुनाव में सिर्प कांग्रेस को ही जनता ने सबक नहीं सिखाया बल्कि यूपीए सरकार और संसद में उसका साथ देने वाले राष्ट्रीय लोक दल, नेशनल कांफ्रेंस, द्रमुक, राकांपा, राष्ट्रीय जनता दल, जद (यू) तथा सपा व बसपा जैसे दलों की भी जमकर खबर ली है जबकि एफडीआई का विरोध करके मनमोहन सिंह सरकार को त्यागने वाली तृणमूल कांग्रेस को इसी जनता ने सिर-आंखों पर बिठाया है। यूपीए सरकार में शामिल रही डीएमके, आरएलडी का तो लोकसभा में खाता तक नहीं खुला जबकि एनसीपी भी मात्र तीन सीटों पर सिमट गई। कोरे तर्प देकर कई मौकों पर कांग्रेस को बचाने वाली बसपा, सपा और राजद का भी इस चुनाव में लगभग सूपड़ा साफ हो गया। अब जनता ने इन्हें सबक सिखाकर अपना हिसाब बराबर कर लिया है। हालांकि डीएमके बाद के दिनों में अलग हो गई थी लेकिन उसके ए. राजा, कनिमोझी जैसे नेताओं ने देश को जमकर लूटा और बदनामी सारी कांग्रेस की हुई। जनता ने इस चुनाव में पार्टियों और नेताओं को चुन-चुन कर मारा है।

Tuesday 20 May 2014

उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार का भविष्य अब अधर में

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अत्यंत खराब प्रदर्शन के साइड इफेक्ट जल्दी दिखने लगे हैं। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इस्तीफा दे दिया है। इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपना पद छोड़ दिया है। अब उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार का भविष्य थोड़ा डांवाडोल जरूर लग रहा है। कांग्रेस छोड़ भाजपा में आए पौड़ी गढ़वाल के सांसद रहे दिग्गज नेता सतपाल महाराज ने कहा कि अब जल्द ही देहरादून में भी कमल खिलेगा। सतपाल महाराज ने कहा कि उत्तराखंड कांग्रेस के विधायकों और मंत्रियों का भाजपा में स्वागत है। सतपाल महाराज ने लोकसभा चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस का दामन छोड़कर भाजपा का थाम लिया था। मुख्यमंत्री हरीश रावत उसी दिन से अपनी सरकार बचाने में लगे हुए हैं। मजेदार बात यह भी है कि सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत खुद कांग्रेस सरकार में मंत्री हैं। कांग्रेस सरकार में सतपाल के करीबी अब भी चार-पांच विधायक हैं। जब दो महीने पहले सतपाल ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था तभी से सरकार पर खतरा मंडरा रहा था। लेकिन उस वक्त लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती थी जिससे चुनाव पर असर पड़े। अभी 70 विधायकों वाली उत्तराखंड विधानसभा में कांग्रेस के 33 विधायक हैं और भाजपा के 30। यूकेडी, बीएसपी और निर्दलीयों को मिलाकर सात विधायक हरीश रावत की कांग्रेस सरकार को समर्थन दे रहे हैं। यदि भाजपा इन्हें सरकार से हाथ खींचने के लिए मना लेती है तो विधनसभा में कांग्रेस को बहुमत साबित करना होगा। फिर सतपाल महाराज के समर्थक भी पाला बदल सकते हैं हालांकि उन्हें एंटी डिफेक्शन कानून का ध्यान रखना होगा। चुनाव के नतीजों से हरीश रावत को व्यक्तिगत झटका भी लगा है। वह सूबे की चारों सीटें हार गए हैं। हद तो तब हुई जब हरिद्वार से उनकी पत्नी तक हार गईं। सतपाल महाराज उत्तराखंड के दिग्गज नेताओं में से एक हैं। आध्यात्मिक गुरु होने की वजह से उनका राज्य ही नहीं बल्कि राज्य के बाहर भी खासा जनाधार है। चुनाव के नतीजों के बाद उत्तराखंड सरकार पर संभावित खतरे को देखते हुए कांग्रेस खासी सतर्प हो गई है। बताया जा रहा है कि सरकार को भाजपा से नहीं बल्कि अपनों से भी खतरा है। भीतरखाने तलाश की जा रही है कि कांग्रेस के कौन-कौन विधायक सरकार को अस्थिर करने में भूमिका निभा सकते हैं। हरीश रावत खेमा लगातार कांग्रेसी विधायकों की टोह ले रहा है साथ ही पलटवार करने के लिए भाजपा विधायकों में से कमजोर कड़ियों की तलाश भी की जा रही हैं यानि मुख्यमंत्री हरीश रावत और उनका खेमा पूरी तरह से संभावित सियासी आपदा के प्रबंधन में जुट गया है। उत्तराखंड सरकार की स्थिरता पर खतरे के अंदेशे को लेकर कांग्रेस में अंदरखाने हलचल मची हुई है। बेशक ऊपरी तौर पर कांग्रेस के नेता सरकार पर किसी भी संकट की संभावना को सिरे से नकार रहे हों लेकिन सरकार व संगठन के रणनीतिकार सियासी हालत पर पैनी नजर रखे हुए हैं। लोकसभा चुनाव में विपक्षी दल भाजपा ने राज्य सरकार की स्थिरता को मुद्दा बनाते हुए कहा था कि हरीश रावत सरकार कांग्रेसियों की अंतर्पलह से खुद ही गिर जाएगी।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी की दहशत दिखाने वाले सियासी दलों को मुस्लिम युवाओं का करारा तमाचा

मोदी की हवा जिसको नजर नहीं आई उनके पांव मोदी की आंधी में उड़ गए। यह अतिश्योक्ति सबसे ज्यादा फिट उत्तर प्रदेश पर बैठती है। यही मुलायम यही, मायावती दिन-रात मोदी को कोसते थकते नहीं थे, मोदी की ऐसी सुनामी आई कि मायावती का तो सूपड़ा ही साफ हो गया और घर में ही थम गए साइकिल के पहिए। मोदी की लहर और सुनामी पर उठे सवालों ने उसे इतना खौफनाक बना दिया कि विपक्ष के लिए परिवार के अलावा कुछ नहीं बचा। उत्तर प्रदेश में वह सफलता मिली जो खुद भाजपा ने भी सपनों में नहीं सोचा होगा। राम लहर और अटल जी की कविताएं भी यूपी की जनता में वह जोश पैदा नहीं कर सकीं जो मोदी की सुनामी ने कर दी। यही वजह रही कि भाजपा ने उन सीटों पर भी इस बार भगवा फहरा दिया जिसको जीतना उसके लिए दिवास्वप्न से कम नहीं था। नरेन्द्र मोदी की आंधी में मोदी के खिलाफ मुस्लिम मतदाताओं को गोलबंद करने की विपक्षी दलों की सियासत इस बार पूरी तरह फेल हो गई। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं का रणनीतिक रूप से ध्रुवीकरण कराने वाले सियासी दल और अल्पसंख्यक वोटों के सौदागर मोदी लहर में क्यों चूक गए, यह काफी दिलचस्प है। ऐसा माना जा रहा है कि पिछले कई दशकों से भाजपा और मोदी का डर दिखाकर वोट मांगने वालों को मुस्लिम मतदाताओं खासकर युवाओं ने इस बार पूरी तरह खारिज कर दिया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में कई संसदीय सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन से ही जन प्रतिनिधि चुने जाते रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष दलों ने इस बार भी भाजपा व मोदी के खिलाफ मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण करने के लिए हर संभव प्रयास किए थे। बावजूद इसके पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगा प्रभावित इलाकों को छोड़कर किसी भी क्षेत्र में मुस्लिमों का किसी दल के साथ ध्रुवीकरण नहीं दिखा। पश्चिमी यूपी में भी दंगों के लिए मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग समाजवादी पार्टी से खफा था। मोदी का डर दिखाने के बावजूद मुस्लिम युवाओं का एक वर्ग मोदी के विकास के नारे से प्रभावित था और एक बार मोदी को आजमाने के लिए उसने भाजपा को वोट दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 1991, 1996 और 1998 का अपना रिकार्ड तोड़ते हुए 73 सीटें अपनी झोली में डाल लीं। भाजपा ने उन सीटों पर भी भगवा फहरा दिया जो मुस्लिम प्रभाव वाली सीटें मानी जाती थीं। इन सीटों में आजम खान के प्रभावशाली रामपुर सहित मुरादाबाद, अलीगढ़, फिरोजाबाद जैसी मुस्लिम बहुल सीटें भी शामिल हैं। एक खास बात यह भी है कि पूरे प्रदेश में एक भी मुस्लिम सांसद निर्वाचित होकर 16वीं लोकसभा में नहीं पहुंचा है। मजेदार बात यह भी है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल का पश्चिमी उत्तर प्रदेश को भाजपा का पूरा फायदा मिला। पहले चरण की सभी 10 सीटों मुजफ्फरनगर, केराना, बिजनौर, मेरठ, बागपत, अलीगढ़, सहारनपुर, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर और बुलंदशहर पर सहारनपुर को छोड़ बाकी सभी सीटों पर जीत का अंतर दो लाख से अधिक था। गाजियाबाद में तो जनरल वीके सिंह ने पांच लाख तो बुलंदशहर व मुजफ्फरनगर में जीत का अंतर चार लाख से ज्यादा था। केवल ध्रुवीकरण के ही चक्रव्यूह को ही अमित शाह ने नहीं तोड़ा पर दलितों के पक्के वोट बैंक वाली बसपा को भी मुंह की खानी पड़ी। मोदी की सुनामी में हाथी के पांव पूरी तरह उखड़ गए। 16वीं लोकसभा में वर्षों बाद बसपा का एक भी सांसद मौजूद नहीं होगा। मोदी लहर ने पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को तहस-नहस कर दिया। दलित वोटों की दीवार भी दरक गई है। 15वीं लोकसभा में बसपा के 20 सांसद थे। पिछली लोकसभा में 27.42 फीसदी वोट झटकने वाली बसपा का वोट बैंक घटकर अब की बार 20 फीसदी के आसपास ही रह गया। साफ है कि वोट बैंक के लिहाज से बहन जी की पार्टी 18 वर्ष पहले की स्थिति से भी पीछे चली गई। उम्मीद थी जिस साइकिल को अवाम ने दो साल पहले ही प्रचंड बहुमत से राज्य की सत्ता पर सवार किया था, उसके पहिए 16वीं लोकसभा चुनाव में घर के अंदर ही थम गए। पिछड़े मतों के बिखराव व सवर्णों की बेरुखी ने सपा को खुद की अंकतालिका में सबसे नीचे पायदान पर ला दिया। इस बार समाजवादी पार्टी की जीत मुलायम सिंह यादव के कुनबे तक ही सिमट गई। खुद मुलायम, बहू डिम्पल, दो भतीजों ने मिलकर कुल पांच सीटों पर जीत दर्ज कराई।

Sunday 18 May 2014

अद्भुत, अकल्पनीय और ऐतिहासिक टर्निंग प्वाइंट है यह चुनाव

के पांव उखड़ गए। देशवासियों ने तुष्टिकरण, जातिवाद और सामाजिक समीकरणों को नकारते हुए एकजुट होकर विकास के लिए, बेहतर भविष्य के लिए नरेन्द्र मोदी को वोट दिया। एग्जिट पोल भी गलत साबित हुए। जितनी सीटें आमतौर पर भाजपा की दिखाई जा रही थीं उससे भी ज्यादा आईं। टाइम्स नाऊ जैसे टीवी चैनल जिसने भाजपा को 249, कांग्रेस को 148 और अन्य को 146 सीटों की भविष्यवाणी करके जनता में भ्रम पैदा किया, उसे मुंह की खानी पड़ी। सबसे करीब एक बार फिर न्यूज 24+ टुडेज चाणक्य साबित हुआ जिसने भाजपा को 340, कांग्रेस को 70 और अन्य को 133 सीटें दीं। नवम्बर के दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भी यही सही साबित हुआ था। आमतौर पर सिवाय टाइम्स नाऊ-ओआरजी के बाकी सभी सही साबित हुए। तीन दशक बाद नरेन्द्र मोदी की लहर पर सवार भाजपा ने अकेले दम पर 272+ सीटों से आगे पहुंचने का करिश्मा दिखाया। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर मोदी ने वड़ोदरा सीट पर पांच लाख 70 हजार वोट से जीतकर भारतीय चुनावों में एक नया रिकार्ड कायम किया। वाराणसी से भी उनकी जीत शानदार रही। उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अरविन्द केजरीवाल को तीन लाख 70 हजार से ज्यादा मतों से हराया। पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर पीवी नरसिंह राव ने नांदयाल सीट से पांच लाख 80 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था पर वह आम चुनाव नहीं बल्कि उपचुनाव था। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस आधा दर्जन राज्यों में तो खाता ही नहीं खोल सकी और उसके ज्यादातर दिग्गज चुनावी मैदान में हार गए। खुद राहुल गांधी को अपनी सीट जीतने में पसीने छूट गए और अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी हासिल करने में नाकाम रही। आलम यह है कि अब तक सरकारें गठबंधन से बनती थी लेकिन पहली बार विपक्ष की शक्ल देने के लिए गठबंधन की जरूरत पड़ेगी। गठबंधन की बात करें तो 30 साल बाद पहली बार भारत की जनता ने किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत दिया। उन्होंने गठबंधन की राजनीति के नुकसान देख लिए हैं इसलिए बड़ी समझदारी का परिचय दिखाते हुए उन्होंने भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया है ताकि उसको गुड गवर्नेंस में कोई दिक्कत न हो। इस चुनाव में जातीय और सामाजिक बुनियाद पर बने कई किले भी ध्वस्त हो गए। बसपा, द्रमुक और रालोद जैसे दल तो अपना खाता भी नहीं खोल सके। आम आदमी  पार्टी जो बहुत कूद रही थी, को मुश्किल से चार सीटें मिली हैं और वोट प्रतिशत भी 2.2 प्रतिशत है जिससे उसका राष्ट्रीय पार्टी का सपना भी चकनाचूर हो गया। दिल्ली में जहां नवम्बर में केजरीवाल एण्ड कम्पनी को अभूतपूर्व विजय मिली थी, को इस बार धूल चाटनी पड़ी और सातों सीटों पर उसका सूपड़ा साफ हो गया।  बड़बोले कुमार विश्वास तो अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। केजरीवाल एण्ड कम्पनी के राजनीतिक भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। नरेन्द्र मोदी ने एक ही झटके में दोनों कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को उसकी औकात दिखा दी। आम चुनाव के दौरान पूरी सियासत पर खुद को केंद्रित रखने में सफल रहे मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर बिना भेदभाव और बिना किसी दबाव में आगे बढ़ने के अपने सुशासन के एजेंडे का संकेत भी दे दिया है। अपने सख्त फैसलों और किसी के दबाव में न आने की पहचान वाले मोदी को जनादेश भी खुलकर काम करने को मिला है। अपने नाम के बूते पर बहुमत से करीब एक दर्जन ज्यादा सीटें (282) लेकर आए मोदी के लिए न पार्टी में किसी से झुकने की जरूरत होगी और न ही गठबंधन की सियासत का उन पर दबाव होगा। अब की बार मोदी सरकार, यह दिल मांगे मोर और कांग्रेस मुक्त भारत जैसे नारों को जनमत ने हकीकत में बदल दिया है। पूरे देश की उम्मीदें और अपेक्षाओं का पहाड़ मोदी के लिए चुनौती है। आम जनता सिर्प इतना चाहती है कि बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आर्थिक विकास पर ठोस नीतियां हों। देश के नौजवान वर्ग ने जमकर मोदी को वोट दिया है। उसको अपने बेहतर भविष्य की उम्मीद है। उसे रोजगार मिलने की उम्मीद है। आर्थिक विकास के नाम पर पिछले 10 सालों से बेरोजगारी और महंगाई की पीड़ा पर झूठे वादे, महंगाई कम करने के लिए डेट पर डेट देती आ रही यूपीए सरकार ने युवाओं में मायूसी का माहौल बना दिया था। अब उन्हें इस माहौल में उम्मीद की एक किरण दिखाई दे रही है। मोदी ने अपने प्रचार में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विकास जैसे मुद्दों पर फोकस किया जिसके आधार पर जनता ने रिकार्ड मतदान किया। जनता इस बात के लिए भी बधाई की पात्र है कि उसने तीसरे मोर्चे के आधार को नकार दिया है। अग्नि-परीक्षा में हमें अमित शाह की मेहनत को नहीं भूलना चाहिए। पिछले साल जब मई में अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया गया था तब भाजपा बुरी तरह खेमों में बंटी हुई थी। 2009 में भाजपा की उत्तर प्रदेश में कुल 10 सीटें थीं। शाह ने न सिर्प गांव-गांव में जमीनी कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी की बल्कि यूपी में सही समय पर प्रभावी मुद्दे उठाए। उदाहरण के तौर पर आजमगढ़ को आतंकगढ़, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपमान का बदला लो... (बटन दबाकर) ने अपना रंग दिखा दिया। कांग्रेस शासित राज्यों में भी मोदी की लहर चली। हरियाणा, कर्नाटक व पश्चिम  बंगाल जैसे राज्यों में भाजपा की जीत अद्वितीय है। कांग्रेस की एंटी इंकम्बैंसी वोट जो आप को मिलना  था वह इस बार भाजपा को मिल गया। वर्तमान लोकसभा में भाजपा के 116 सदस्य हैं और उसकी वोट की हिस्सेदारी 18.8 प्रतिशत थी। कांग्रेस 28.55 प्रतिशत वोट हासिल कर 206 सदस्यों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। इस बार भाजपा को 31.4 प्रतिशत वोट और 282 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को सिर्प 19.5 प्रतिशत वोट मिले और वह 44 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी स्वीकारते हुए कहा कि जनादेश कांग्रेस के खिलाफ है। आज से एक साल पहले तक अनाम से शायद ही किसी ने सोचा होगा कि गुजरात के एक कस्बे में जन्मे नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जोकि बचपन में चाय बेचते थे एक दिन भारतीय लोकतंत्र में नया इतिहास रचेंगे? 16वीं लोकसभा चुनाव के जैसे नतीजे आए हैं उसकी प्रशंसा करने के लिए शब्द भी कम हैं। बस इतना ही कह सकते हैं कि अद्भुत! अकल्पनीय और ऐतिहासिक। लगता है, अच्छे दिन आ गए हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday 17 May 2014

महंगाई, उत्पादन में गिरावट नई सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी

देश के औद्योगिक उत्पादन में लगातार गिरावट और बढ़ती महंगाई इस माह के अंत तक सत्ता संभालने वाली नई सरकार के लिए प्रमुख चुनौती साबित होगी। केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (सीएसओ) द्वारा सोमवार को जारी आंकड़ों के अनुसार औद्योगिक उत्पादन में लगातार दूसरे महीने गिरावट रही और यह घटकर 0.5 फीसदी पर आ गई जबकि अप्रैल में खुदरा महंगाई बढ़कर तीन महीनों में उच्च स्तर 8.59 फीसदी पर पहुंच गई। पिछले साल मार्च में औद्योगिक उत्पादन 3.5 फीसदी था। लोकसभा का नौ चरणों में मतदान सोमवार को समाप्त हुआ और मतगणना शुक्रवार को होगी। एग्जिट पोल की मानें तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार के गठन की पूरी संभावना है। मोदी के लिए अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाना एक मुश्किल चुनौती साबित होगी। सीआईआई के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी कहते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर  और मैन्यूफैक्चरिंग परियोजनाओं जैसे दिल्ली, मुंबई इंडस्ट्रीयल कारिडोर (डीएमआईसी) परियोजना को तेजी से आगे बढ़ाकर और कर नीति में स्पष्टता लाकर निवेशकों को भरोसा लौटाना होगा। एग्जिट पोल के नतीजों से शेयर बाजार में एक नई तेजी जरूर आई है। आंकड़ों को देखें तो महंगाई आसमान छू रही है। सब्जी, फल और दूध की बढ़ी कीमतों के चलते खुदरा महंगाई 8.59 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई जो तीन महीनों में सबसे ज्यादा है। बढ़ती महंगाई के चलते रिजर्व बैंक पर नीतिगत दरों में रियायत न देने का दबाव बनेगा। रिजर्व बैंक मौद्रिक नीति की समीक्षा बैठक 3 जून को करेगा। तब तक नई सरकार का गठन भी हो चुका होगा और प्राथमिकताएं भी तय हो चुकी होंगी। यदि एनडीए की सरकार बनती है तो सबसे बड़े बदलाव हमें अपनी इकोनॉमी व आर्थिक मोर्चे पर देखने को मिल सकते हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और वित्त सचिव अरविन्द मायाराम नई सरकार के निशाने पर होंगे। एक अहम क्षेत्र जहां नई सरकार को आते ही फैसला करना होगा वह है बैंकिंग सेक्टर। सबसे पहले बैंकिंग सेक्टर के अटके हुए फैसले लेने होंगे। रिजर्व बैंक ने जो भारी-भरकम गलतियां कीं, उनसे ग्रोथ रुक गई है। जब डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत हो रहा था तो हमने डॉलर का रिजर्व खड़ा न करने की भारी चूक की। तीन साल से छह प्रतिशत से नीचे चल रही विकास दर के लिए टारगेट 10 प्रतिशत है। अगर यह टारगेट पूरा होता है तब जाकर विकास नजर आएगा। बता दें कि चीन में यह सात प्रतिशत से ऊपर है। देश का सबसे चिंताजनक सेक्टर है उत्पादन सेक्टर यानि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर। इसकी ग्रोथ पिछले साल से 0.2 फीसदी घटकर 0.1 फीसदी रह गई है। दो साल पहले तक यह 7.5 फीसदी थी। मुद्रास्फीति के दावे छह प्रतिशत तक लाने के थे लेकिन मार्च में यह 8.3 फीसदी रही। इसके चार फीसदी रहने पर ही बाजार में चीजों के दाम संतुलित होंगे। देश का एक बहुत अहम क्षेत्र है कृषि। पिछले साल की ग्रोथ 1.4 प्रतिशत के मुकाबले इस बार 4.6 फीसदी है। लेकिन उम्मीद ज्यादा है, क्योंकि जीडीपी में इस सेक्टर की हिस्सेदारी 16.9 प्रतिशत है। मैंने कुछ प्रमुख क्षेत्रों का जिक्र किया है। ऐसे दर्जनों आर्थिक क्षेत्र हैं जिन पर नई सरकार को न केवल आते ही ध्यान देना होगा पर गलत नीतियों को प्राथमिकता के अनुसार सही करना होगा और उन पर अमल करना होगा।

-अनिल नरेन्द्र

क्या राहुल गांधी कांग्रेस की बढ़ती चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं भी?

लोकसभा चुनाव में लग यही रहा था कि कांग्रेस पार्टी की बड़ी दुर्गति होनी तय है और सबसे ज्यादा चिंता की बात कांग्रेसजनों के लिए यह है कि सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी का राजनीतिक भविष्य और नेतृत्व दोनों ही भंवर में हैं। यह देखकर दुख होता है कि इतनी पुरानी ऐतिहासिक पार्टी का यह हश्र होगा। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? पार्टी नेताओं का एक बड़ा धड़ा उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बचाने की कोशिशों में जुट गया है। यह नेता चाहते हैं कि हार की जिम्मेदारी राहुल पर न आए। मगर सवाल यहां किसकी गलती है किसकी नहीं यह तो है पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल शायद यह है कि क्या राहुल गांधी राजनीति में रुचि रखते भी हैं या नहीं? क्या वह कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाल पाएंगे? पिछले 10 साल से ऊपर सोनिया गांधी ने यह जिम्मेदारी संभाल रखी थी और उन्होंने तमाम कठिनाइयों के बावजूद पार्टी को सही नेतृत्व दिया। राहुल की दिलचस्पी और बातों पर ज्यादा रहती हैं। बुधवार को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विदाई भोज दिया था। इतने महत्वपूर्ण भोज से भी राहुल गायब रहे। रात्रि भोज में राहुल गांधी की गैर मौजूदगी चर्चा का विषय बनी रही। अटकलें तेज रहीं कि राहुल विदेश गए हैं। अजय माकन ने राहुल गांधी की अनुपस्थिति पर सफाई देते हुए कहा कि राहुल शहर से बाहर हैं और वह बृहस्पतिवार को लौट आएंगे। पार्टी के एक तबके का कहना है कि राहुल गांधी की रुचि राजनीति में है ही नहीं और वह अकसर फोन पर बिजी रहते हैं। इनमें से कुछ ने यह भी माना है कि राहुल ने कांग्रेस के ढांचे को ही तोड़कर रख दिया है। कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि राहुल की कथित टीम की अनुभवहीनता, जमीनी राजनीति से दूरी और वरिष्ठ नेताओं के प्रति दुराग्रह ने पार्टी की यह हालत कर दी है। ऐसी हालत कर दी है कि 10 साल तक देश की सरकार चलाने के बावजूद एक राज्य के विवादित मुख्यमंत्री ने उस पार्टी को बेबस कर दिया जिसने अब तक के संघ परिवार के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता से हटाया था। यही नहीं, 2009 में भी जीत दर्ज की और राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनाव भी जीते। इस वरिष्ठ नेता का कहना है कि 2009 चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी की जमीन तैयार हो गई थी। लेकिन राहुल के कथित सलाहकारों की सोशल इंजीनियरिंग व अति पिछड़ावाद ने पहले विधानसभा चुनावों में सब चौपट करा, रही-सही कसर लोकसभा चुनावों में पूरी कर दी। बिहार से जुड़े पार्टी के एक अन्य नेता के मुताबिक 2009 में कांग्रेस ने भले ही अपने दम पर दो सीटें जीतीं लेकिन उनका वोट प्रतिशत बढ़ा। तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष अनिल शर्मा की मेहनत रंग लाने लगी थी लेकिन तभी जगदीश टाइटलर को प्रभारी बना दिया गया, जिससे प्रदेश इकाई में झगड़े बढ़ गए। नतीजा कमान मेहबूब कैसर को सौंपी गई जिन्हें अपने जिले के बारे में भी जानकारी नहीं थी। नतीजा कांग्रेस की दुर्गति हुई और लोकसभा चुनावों से पहले वह लोजपा में शामिल हो गए और चुनाव लड़े। राहुल गांधी के कथित सलाहकारों ने राजनीतिक कार्यक्रमों की बजाय आंकड़ेबाजी और विज्ञापन व पीआर एजेंसियों पर कार्यकर्ताओं से ज्यादा भरोसा किया। कलावती से लेकर भट्ठा पारसौल तक उन्होंने जितने भी अभियान किए पार्टी उन्हें सियासी कार्यक्रमों में नहीं  बदल सकी। राहुल का बार-बार प्रधानमंत्री या मंत्री बनने से इंकार का भी नुकसान हुआ। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को न केवल कम करके आंका गया बल्कि उससे निपटने की कोई रणनीति बनी ही नहीं। उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस के एक दिग्गज नेता के मुताबिक पिछले लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों, मुसलमानों ने कांग्रेस को 22 सीटें जिताने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन विधानसभा चुनावों में पार्टी में इस बार पिछड़ावाद चला न सिर्प सबसे कम टिकट ब्राह्मण और मुसलमानों को मिले बल्कि मुलायम सिंह पट्टी में कांग्रेस ने यादव उम्मीदवार उतारे, जिनमें ज्यादातर की जमानतें जब्त हो गईं। दूसरी पार्टियों से बुलाकर टिकट बांटने से समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ता घर बैठ गए बल्कि कांग्रेस की ब्राह्मण राजनीति की धुरी रहे उत्तर प्रदेश के प्रभारी उन मधुसूदन मिस्त्राr को बनाया गया जो गाजियाबाद और गाजीपुर का फर्प नहीं जानते थे। अब राहुल गांधी, सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह तय करना होगा कि चुनावों में इस करारी हार से वह कैसे निपटेंगे और भविष्य में पार्टी को किसने, कैसे चलाना है?